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शनिवार, 30 अप्रैल 2011

बुद्ध पुरूष कहां पैदा होते है—(कथा यात्रा-015)

बुद्ध पुरूष कहां पैदा होते है-(एस धम्मो सनंतनो)
आनंद ने कहां, भगवान आपने बताया नहीं उत्‍तम पुरूष कौन है? कैसे उत्‍पन्‍न होते
है? तब भगवान ये सुत्र कहां था। आनंद उत्‍तम पुरूष सर्वत्र उत्‍पन्‍न नहीं होते। वे मध्‍य देश में उत्‍पन्‍न होते है। और जन्‍म से ही धनवान होते है। वे क्षत्रिय या ब्राह्मण कुल में उत्‍पन्‍न होते है

दुल्‍लभो पुरिसाजज्जो न सो सब्‍बत्‍थ जायति।
यत्‍थ सो जायति धीरो तं कुलं सुखमधिति।।
     पुरूष श्रेष्‍ठ दुर्लभ है, सर्वत्र उत्‍पन्‍न नहीं होता,वह धीर जहां उत्‍पन्‍न होता है, उस कुल में सुख बढ़ता है।
      इस गाथा का अर्थ बौद्धो ने अब तक जैसा किया है, वैसा नहीं है। सीधा-सीधा अर्थ तो साफ़ मालूम होता है। कि बुद्ध महा धनवान घर में पैदा होते है। फिर कबीर का क्‍या होगा।
फिर क्राइस्‍ट का क्‍या होगा। फिर मोहम्‍मद का क्‍या होगा। ये तो महा धनवान घरों में पैदा नहीं हुए। तो फिर ये बुद्ध पुरूष नहीं है। ये तो बड़ी संक्रीर्णता हो जाएगी। जैनों के चौबीस तीर्थंकर राजपुत्र थे। सही, हिंदुओं के सब अवतार राजाओं के बेटे है, सही, और बुद्ध भी राजपुत्र है सही। इस लिए इस वचन का बौद्धो ने यहीं अर्थ लिया। कि बुद्ध पुरूष राज घरों में पैदा होते है। महा धनवान।

शुक्रवार, 29 अप्रैल 2011

संभोग से समाधि की और—35

जनसंख्‍या विस्‍फोट
    
प्रश्‍नकर्ता: भगवान श्री, परिवार नियोजन के बारे में अनेक लोग प्रश्‍न करते है कि परिवार द्वारा अपने बच्‍चों की संख्‍या कम करना धर्म के खिलाफ है। क्‍योंकि उनका कहना है कि बच्‍चे तो ईश्‍वर की देन है, और खिलाने वाला परमात्‍मा है। हम कौन है? हम तो सिर्फ जरिया है, इंस्टूरूमेंट है। हम तो सिर्फ बीच में इंस्‍टुमेंट है, जिसके ज़रिये ईश्‍वर खिलाता है। देने वाला वह, करने वाला वह, फिर हम क्‍यों रोक डालें? अगर हमको ईश्‍वर ने दस बच्‍चे दिये तो दसों को खिलाने का प्रबंध भी तो वहीं करेगा। इस संबंध में आपका क्‍या विचार है?    

     भगवान श्री: सबसे पहले तो धर्म क्‍या है इस संबंध में थोड़ा सी बात समझ लेनी चाहिए।
      धर्म है मनुष्‍य को अधिकतम आनंद, मंगल और सुख देने की कला।
      मनुष्‍य कैसे अधिकतम रूप में मंगल और सुख को उपलब्‍ध हो, इसका विज्ञान ही धर्म है।

लूटने की आस है—(कविता)

टुकड़ा कोई यूं टूट कर,
      कुछ दूर रह गया।
मुझसे मेरे ऐ दोस्‍त
      तू रूठ क्‍यों गया।
कहने लगा इक घर चाहिए उसकी तलाश है।
जीते रहे यूं संग तेरे,   जैसे  की लाश  है।।

गुरुवार, 28 अप्रैल 2011

भगवान बुद्ध का भिक्षुओं को डाटना—(कथा यात्रा-014)

भगवान ने भिक्षुओ का डाटा-(एस धम्मो सनंतनो)
एक दिन बहुत से भिक्षु बैठे बात कर रहे थे। पहली बात तो यह है कि भिक्षु बैठकर गपशप करें,यहीं भिक्षु के लिए योग्‍य नहीं। भिक्षु चुप बैठे, यही योग्‍य है। भिक्षु उतना ही बोले जीतना अनिवार्य हो। अपरिहार्य हो, भिक्षु होने के बाद बहुत बातें छोड़नी है, उनमें व्‍यर्थ की चर्चा भी छोड़नी है। नहीं तो फिर सांसारिक और संन्‍यासी में फर्क क्‍या रहा?

      तो पहली तो बात बहुत से भिक्षु बैठे बातें कर रहे थे। भिक्षु जब बैठे, चुप बैठे,मौन बैठे , सन्‍नाटे में डूबे, शून्‍य में उतरें। भिक्षु का अर्थ ही है, समाधि की तलाश। गपशप से तो समाधि की तलाश नहीं होगी।
      तुम भी सोचना तुम भी संन्‍यासी हो, तुम बैठकर अगर व्‍यर्थ की बातें करते हो, तो विचारकरना, इन बातों से क्‍या होगा? और अगर ये बातें वैसी ही है जैसी होटलों में लोग कर रहे है बैठकर, अगर ये बातें वैसी ही है जैसी क्लब घरों में चल रही है। दुकानों पर चल रही है, बजार में चल रही है तो फिर तुममें और उनमें कोई फर्क नहीं है। तुम्‍हारी बात से तुम्‍हारा पता चलता है। बात ऐसे ही थोडे आ जाती है। बात तो फल है। नीम के वृक्ष में कड़वे फल लगते है, वह नीम की बात।

बुधवार, 27 अप्रैल 2011

संभोग से समाधि की और—34

जनसंख्‍या विस्‍फोट
    
कुछ प्रश्‍न उठाये जाते है। यहां उनके उत्‍तर देना पसंद करूंगा:--

     एक मित्र ने पूछा है कि अगर यह बात समझायी जाये तो जो समझदार है, बुद्धिजीवी है, इंटेलिजेन्‍सिया है, मुल्‍क का जो अभिजात वर्ग है, बुद्धिमान और समझदार है, वह तो संतति नियमन कर लेगा, परिवार नियोजन कर लेगा। लेकिन जो गरीब है, दीन-हीन है, वे पढ़े लिखे ग्रामीण है, जो कुछ समझते ही नही, वह बच्‍चे पैदा करते ही चले जायेंगे और लम्‍बे अरसे में परिणाम यह होगा कि बुद्धि मानों के बच्‍चे कम हो जायेगे और गैर-बुद्धि मानों के बच्‍चों की संख्‍या बढ़ती जायेगी।

सोमवार, 25 अप्रैल 2011

भगवान को भिक्षा न मिलना—(कथा यात्रा-013)

भगवान का भिक्षा न मिलना-(एस धम्मो सनंंतनो) 
एक दिन भगवान पंचसाला नामक ब्राह्मणों के गांव में भिक्षा टन के लिए गए। मार ने—शैतान ने—पहले ही ग्रामवासियों में आवेश कर ऐसा किय कि भगवान को किसी ने कलछी मात्र भी भिक्षा न दी। ब्राह्मणों का गांव, यह खयाल में रखाना। खतरनाक गांव है। सब पंडित-ज्ञानी है। जब भी बुद्ध पुरूष हुए है तो पंडितों ने उन्‍हें इनकार किया है। जिन्‍होंने जीसस को सूली दी, वे पंडित थे, ब्राह्मण थे, पुरोहित थे। येरूशलम के बड़े मंदिर का प्रधान पुरोहित उसमें सम्‍मिलित था। पुरोहितों की कौंसिल ने निर्णय किया था। जितने बड़े पंडित थे यहूदियों के, सब ने यह निर्णय  दिया था कि यह आदमी मार डालने योग्‍य है। यह आदमी खतरनाक है।

      पंडित ज्ञान के पक्ष में नहीं होता। यह थोड़ा समझना कि क्‍या बात है। होना तो चाहिए पंडित को ज्ञान के पक्ष में, लेकिन पंडित ज्ञान के पक्ष में नहीं होता। क्‍यों? क्‍योंकि अगर बुद्ध सही है तो फिर पंडित का सारा ज्ञान थोथा सिद्ध हो जाता है। वह तो शास्‍त्र से पाया, वह तो किताब से पाया। और बुद्ध उसे अपने भीतर जगाए है, अपने भीतर उठाए है। बुद्ध का शस्‍त्र उनकी चेतना में हैं और पंडित का शास्‍त्र तो बाहर है। किताबी ज्ञान को ही वह अब तक ज्ञान मानता रहा है।

रविवार, 24 अप्रैल 2011

संभोग से समाधि की और—33

जनसंख्‍या विस्‍फोट

     जीने का क्‍या अर्थ?
      जीने का इतना ही अर्थ है कि ईग्जस्ट करते है। हम दो रोटी खा लेते है, पानी पी लेते है। और कल तक के लिए जी लेते है। लेकिन जीना ठीक अर्थों में तभी उपलब्‍ध होता है जब हम एफ्ल्‍युसन्‍स को, समृद्धि को उपलब्‍ध हो।
      जीवन का अर्थ है ओवर फ्लोइंग जीने का अर्थ है, कोई चीज हमारे ऊपर से बहने लगे।

पीपल तू अब नहीं बचेगा? --( कविता)


देखना पीपल अब तू नहीं बचेगा?
सुकोमल सा था तब किया तूने,
तपती दुपहरी का किस साहस से सामना,
रिम-झिम बरसतें सावन में
गर्दन तक डूब कर भी तू नहीं डरा।
जिस दिन वो दीवार बन रही थी,

बुधवार, 20 अप्रैल 2011

धर्म और संस्‍कार—

धर्म तुम्‍हें संस्‍कारित करते है। राजनेता तुम्‍हें संस्‍कारित करते है। तुम एक संस्‍कारित चित हो। केवल ध्‍यान द्वारा संभावना है तुम्‍हारे मन को अ-संस्‍कारित करने की। केवल ध्‍यान ही संस्‍कारों के पार जाता है। क्‍यों? क्‍योंकि प्रत्‍येक संस्‍कार विचारों के द्वारा काम करता है। यदि तुम अनुभव करते हो कि तुम हिंदू हो, तो क्‍या है यह? विचारों का एक बंडल तुम्‍हें दे दिया गया, जब तुम जानते भी न थे कि तुम्‍हें क्‍या दिया जा रहा है। विचारों की एक भीड़—और तुम ईसाई हो जाते हो, कैथोलिक हो जाते हो, प्रोटेस्टैट हो जाते हो।

मंगलवार, 19 अप्रैल 2011

कामवासना ओर प्रेम—

कामवासना अंश है प्रेम का, अधिक बड़ी संपूर्णता का। प्रेम उसे सौंदर्य देता है। अन्‍यथा तो यह सबसे अधिक असुंदर क्रियाओं में से एक है। इसलिए लोग अंधकार में कामवासना की और बढ़ते है। वे स्‍वयं भी इस क्रिया का प्रकाश में संपन्‍न किया जाना पसंद नहीं करते है। तुम देखते हो कि मनुष्‍य के अतिरिक्‍त सभी पशु संभोग करते है दिन में। कोई पशु रात में कष्‍ट नहीं उठाता; रात विश्राम के लिए होती है। सभी पशु दिन में संभोग करते है; केवल आदमी संभोग करता है रात्रि में। एक तरह का भय होता है कि संभोग की क्रिया थोड़ी असुंदर है। और कोई स्‍त्री अपनी खुली आंखों सहित कभी संभोग नहीं करती है। क्‍योंकि उनमें पुरूष की अपेक्षा ज्‍यादा सुरुचि-संवेदना होती है। वे हमेशा मूंदी आंखों सहित संभोग करती है।  जिससे कि कोई चीज दिखाई नहीं देती। स्‍त्रियां अश्‍लील नहीं होती है, केवल पुरूष होते है ऐसे।

रविवार, 17 अप्रैल 2011

नेता कि अमृत वाणी—(कविता)

हरा सके जो चुनाव में, विजय तभी तू जान।
भूखे रहकर चार दिन,  मचा दिया घमासान।।
नेता की फुफकार से जल रही थी घास।
झूठ तोहमत लगाये कर रहा बकवास।

विवेकानंद और देव सेन—(कथा यात्रा-0012)

विवेकानंद और देव सेन-(कथा यात्रा)

ऐसा हुआ, विवेकानंद एक बड़े विद्वान के साथ ठहरे हुए थे। उनका नाम था, देवसेन। बहुत बड़ा विद्वान, जिसने संस्‍कृत शास्‍त्रों का पश्‍चिमी भाषाओं में अनुवाद किया। देवसेन उपनिषदों के अनुवाद में संलग्‍न था—और वह सर्वाधिक गहरे अनुवादकों में से एक था। एक नई पुस्‍तक प्रकाशित हुई थी। विवेकानंद ने पूछा, क्‍या मैं इसे देख सकता हूं? क्‍या मैं इसे पढ़ने के लिए ले सकता हूं? देवसेन ने कहा, हां-हां जरूर ले सकते हो, मैंने इसे बिलकुल नहीं पढ़ा है।

      कोई आधे घंटे बाद विवेकानंद ने पुस्‍तक लौटा दी। देवसेन को तो भरोसा न हुआ। इतनी बड़ी पुस्‍तक पढ़ने के लिए तो कम से कम एक सप्‍ताह चाहिए। और अगर तुम उसे ठीक से पढ़ना चाहते हो तब तो और भी समय चाहिए। और यदि उसे तुम उसे समझना भी चाहते हो,  कठिन है पुस्‍तक तब तो और भी अधिक समय चाहिए आपको। उसने कहा,क्‍या आपने पूरा पढ़ लिया इसे? क्‍या आपने सच मैं पूरा पढ़ लिया? या कि बस यूं ही इधर उधर निगाह डाल ली।
      विवेकानंद ने कहा, मैंने भली भांति अध्‍यन किया है इसका।

शनिवार, 16 अप्रैल 2011

मौलुंकपुत्र-भगवान बुद्ध—(कथा यात्रा-011)

मौलुंकपुत्र-भगवान बुद्ध-(एस धम्मो सनंतनो) 
एक व्‍यक्‍ति, कोई जिज्ञासु, एक दिन आया। उसका नाम था मौलुंकपुत्र, एक बड़ा ब्राह्मण विद्वान;
पाँच सौ शिष्‍यों के साथ आया था बुद्ध के पास। निश्‍चित ही उसके पास बहुत सारे प्रश्‍न थे। एक बड़े विद्वान के पास होते ही हैं ढेर सारे प्रश्‍न, समस्‍याएं ही समस्‍याएं। बुद्ध ने उसके चेहरे की तरफ देखा और कहा, मौलुंकपुत्र, एक शर्त है। यदि तुम शर्त पूरी करो,केवल तभी मैं उत्‍तर दे सकता हूं। मैं देख सकता हूं तुम्‍हारे सिर में भनभनाते प्रश्‍नों को। एक वर्ष तक प्रतीक्षा करो। ध्‍यान करो,मौन रहो। तब तुम्‍हारे भीतर का शोरगुल समाप्‍त हो जाए, जब तुम्‍हारी भी की बातचीत रूक जाए,तब तुम कुछ भी पूछना और मैं उत्‍तर दूँगा। यह मैं वचन देता हूं।

      मौलुंकपुत्र कुछ चिंतित हुआ—एक वर्ष, केवल मौन रहना, और तब यह व्‍यक्‍ति उत्‍तर देगा। और कौन जाने कि वे उत्‍तर सही भी है या नहीं? तो हो सकता है एक वर्ष बिलकुल ही बेकार जाए। इसके उत्‍तर बिलकुल व्‍यर्थ भी हो सकते है। क्‍या करना चाहिए? वह दुविधा में पड़ गया। वह थोड़ा झिझक भी रहा था। ऐसी शर्त मानने मे; इसमें खतरा था। और तभी बुद्ध का एक दूसरा शिष्‍य, सारिपुत्र, जोर से हंसने लगा। वह वहीं पास में ही बैठा था—एकदम खिलखिला कर हंसने लगा। मौलुंकपुत्र और भी परेशान हो गया; उसने कहा,बात क्‍या है? क्‍यों हंस रहे हो तुम?

शुक्रवार, 15 अप्रैल 2011

मेरी सेक्स के पार की यात्रा-भाग-2

मार्ग की अनुभुतियां--

मेरी सेक्स के पार की यात्रा-भाग-2

उसके बाद तो मैंने और मां ध्‍यान निर्वाह ने मिल कर बहुत गहरे प्रयोग किये। कितनी ही रातों हम दोनों एक दूसरे के साथ निर्वस्त्र सोये। मेरा तो ध्‍यान धीरे-धीरे गहरा और परिपक्‍व हो रहा था। पर उसे कभी-कभार सेक्‍स के तूफ़ान के कारण काफ़ी परेशानी का सामना करना पड़ता था। इस बात का पता मुझे काफ़ी दिनों बाद चला। क्‍योंकि स्‍त्री का सेक्‍स अंतगामी है पुरूष की तरह आप उसके तनाव को देख नहीं सकते। एक रात नाद-ब्रह्मा ध्‍यान करते एक विचित्र घटना घटी उस की साक्षी हमारी पत्‍नी मां अदवीता नियति भी थी। असल में प्रत्‍येक ध्‍यान में वह हमारे साथ होती थी। इतने दूर तक जाने के बाद मां ध्‍यान निर्वाह की हिम्‍मत बढ़ गई फिर उसने समझ और देख लिया की यहां हम ध्‍यान कर रहे। तब वह भी हिम्‍मत कर के निर्वस्त्र हो मेरे साथ ध्‍यान करने लगी। रात के समय एक तो पहले ही काला रंग और उपर से अँधेरा कर लिया जाता था। ध्‍यान के कमरे में हम केवल ध्‍यान ही करते थे वरना तो फिर बद कर दिया जाता था। तब निर्वस्त्र होने में किसी को कोई झिझक भी नहीं होती थी। फिर ध्‍यान के समय हमारी आंखे भी तो बंद रहती थी।

गुरुवार, 14 अप्रैल 2011

संभोग से समाधि की और—32

जनसंख्‍या विस्‍फोट
     और बहुत से अनजाने मानसिक दबाब भी है। गुरुत्वाकर्षण तो भौतिक दबाव हे; लेकिन चारों तरफ से लोगों की मोजूदगी भी हमको दबा रही है। वे भी हमें भीतर की तरफ प्रेस कर रहे है। सिर्फ उनकी मौजूदगी भी हमें परेशान किये हुए है। अगर यह भीड़ बढ़ती चली जाती है। तो एक सीमा पर पूरी मनुष्‍यता के ‘’न्‍यूरोटिक’’ विक्षिप्‍त हो जाने का डर है।

बुधवार, 13 अप्रैल 2011

भौतिक समृद्धि ओर आध्‍यात्‍मिक खोज--

क्‍या भौतिक समृद्धि के साथ-साथ अध्‍यात्‍मिक खोज नहीं चल सकती?
      दोनों में कोई भी विरोध नहीं है। आध्‍यात्‍मिक विकास और भौतिक समृद्धि साथ-साथ चल सकते है। बस एक बात याद रखनी चाहिए कि भौतिक समृद्धि दास बनी रहे और आध्‍यात्‍मिक साधना स्‍वामी के स्‍थान पर रहे। किसी भी बिंदु पर भौतिक समृद्धि के लिए आध्‍यात्‍मिक विकास को बलि पर मत चढ़ाना।

सोमवार, 11 अप्रैल 2011

सपनों के पाँच प्रकार—II

चौथे प्रकार के स्‍वप्‍न–
     चौथे प्रकार के स्‍वप्‍न जो कि आते है पिछले जन्‍मों से। वे बहुत विरल नहीं होते है। वे घटते हैं, बहुत बार आते है वे। लेकिन हर चीज तुम्‍हारे भीतर इतनी गड़बड़ी में है कि तुम कोई भेद नहीं कर पाते। तुम वहां होते नहीं भेद समझने को।

रविवार, 10 अप्रैल 2011

सपनों के पाँच प्रकार—

पहला प्रकार—
     पहले प्रकार के स्‍वप्‍न तो मात्र कूड़ा करकट होते है। हजारों मनो विश्लेषक बस कूड़े पर कार्य कर रहे है; यह बिलकुल व्‍यर्थ है। ऐसा होता है क्‍योंकि सारे दिन में, दिन भर काम करते हुए तुम बहुत-कुड़ा कचरा इकट्ठा कर लेते हो। बिलकुल ऐसे ही जैसे शरीर पर आ जमती है धूल। और तुम्‍हें होती है स्‍नान की जरूरत, एक सफाई की। इसी ढंग से मन इकट्ठा कर लेता है धूल को। लेकिन मन के स्‍नान कराने को कोई उपाय नहीं। इसलिए मन के पास होती है एक स्‍वचलित प्रक्रिया सारी धूल और कूड़े करकट को बहार फेंक देने की। पहली प्रकार का स्वप्न कुछ नहीं है सिवाय उस धूल को उठाने के जिसे मन फेंक रहा होता है। यह सपनों को बड़ा भाग होता है। लगभग नब्‍बे प्रतिशत। सभी सपनों का करीब-करीब नब्‍बे प्रतिशत तो फेंक दि गई धूल होती है। मत देना ज्‍यादा ध्‍यान उनकी और। धीरे-धीरे जैसे-जैसे तुम्‍हारी जागरूकता विकसित होती जाती है। तुम देख पाओगे की धूल क्‍या होती है।

शनिवार, 9 अप्रैल 2011

मेरी सेक्‍स के पार की यात्रा-मनसा

मेरी सेक्‍स के पार की यात्रा-(मार्ग की अनुभूतियां)


      जीवन में जो भी हम आज पाते है, वो कल बीज रूप में हमारा ही बोया हुआ होता है। पर समय के अंतराल के कारण हम दोनों में उसकी तादम्यता नहीं जोड़ पाते और कहते है। मनुष्य के मन के सात प्रकार है, वहीं से उसे अपनी यात्रा शुरू करनी होती है परंतु ये कार्य तो केवल गुरु ही देख सकता है। सेक्स, कृपणता, क्रोध, धूर्तता, मूढ़ता.... परंतु इस समय पूरी पृथ्वी मानसिक रूप से सेक्स से बीमार है। सेक्स जो शरीर की जरूरत है, वो हमारे सभ्य होने के साथ-साथ मन पर आ गया। जो बहुत खतरनाक है। सबसे पहले तो साधक को ये समझ लेना चाहिए की सेक्स शरीर पर कैसे आये। तब हम उसके पास हो सकते है, कृपणता तो पहला द्वार है कृपण आदमी न तो प्रेम कर सकता है, न वह केवल धन का गुलाम होता है, वह कमाता तो है परंतु उसका उपयोग भी नहीं कर पता। सद्उपयोग की बात तो छोडिये, इस लिए सभी धर्मों ने दान का बहुत महत्व दिया है, दान पहला द्वार खोने के लिए अति जरूर है।

परंतु जब साधक ध्यान साधना शुरू करता है तो वही द्वारा जो खुला है उर्जा वहीं से रिसना शुरू कर देती है, क्रोधी अधिक क्रोधी, सेक्सी अधिक सेक्सी, कंजूस अधिक कंजूस, चालाक-कपटी अधिक लंपट होना शुरू हो जाता है। क्यों ऐसा होता है, क्योंकि आपके उसी द्वार से जीवन की अधिकतम उर्जा बहती है। तब हम घबरा जाते है, क्रोध और सेक्स सकारात्मक है, ज्यादा सत साधक इस द्वारा पर जो खड़े होते है वही ध्यान में उतर सकते है, कंजूस, मूढ़़, चालाक....का ध्यान में गहरे उतरना अति कठिन है। जीवन एक उर्जा है सेक्स-क्रोध एक कुदरत की देन है। एक से हम प्रकृति की उत्पति करते है दूसरे से जीवन की रक्षा।

शुक्रवार, 8 अप्रैल 2011

हे अवतारे—अन्‍ना हज़ारे—कविता

हे अवतारे, अन्‍ना हज़ारे।
जग से न्‍यारे, हो तुम प्‍यारे।।

भागे भ्रष्‍टाचार आगे-आग।
लोकपाल बिल ला.... रे।।

अहिंसा में है अद्भुत ताकत।
फिर दुनियां को दिखा.. रे।।

बूझेगा दीपक भ्रष्‍टाचार का।
ऐसी आंधी चला....रे।।

जागा जनमत, ले रहा करवट।
दे सिंहासन को ये हिला...रे।।

लहरेगा फिर सत्‍य का परचम।
‘’आनंद’’ उत्‍सव ला....रे।
--स्‍वामी आनंद प्रसाद ‘’मनसा’’

बुधवार, 6 अप्रैल 2011

जीवित--मधुशाला

प्रियतम  तेरे सपनों की, मधुशाला मैंने देखी है।
होश बढ़ता इक-इक प्‍याला, ऐसी हाला  देखी है।।
      मदिरालय जाने बालों नें,
      भ्रम न जाने क्‍यों पाला।
      हम तो पहुंच गए मंजिल पे,
      पीछे रह गई मधुशाला।।

सोमवार, 4 अप्रैल 2011

03-सजी दूल्हनियां—(कविता)

रात सजी दुल्हनियां जैसी, तारों की ओढ़ चुनरीयां।
मुझे छुपाले खुद में प्रियतम हो गई तो अब सांवलियां।

01-चांद निहारे, पपीहा पुकारे,जीवन में कब हो उजियारे।
एक झलक तो देजा प्रितम, क्यों छुप-छुप करे इशारे।
चलत-चलते थक गई अब तो, मिले न कोई किनारे।
थक गई में तो चलते-चलते,मिला नहीं वो किनारे।
जीवन सांसे छलक रही हे, रीतगई रे गागरियां।
मुझे छूपाले......

रविवार, 3 अप्रैल 2011

संभोग से समाधि की और—31

जनसंख्‍या का विस्‍फोट-
    पृथ्‍वी के नीचे दबे हुए, पहाड़ों की कंदराओं में छिपे हुए, समुद्र की सतह में खोजें गये बहुत से ऐसे पशुओ के अस्‍थिर पंजर मिले है, जिनका अब कोई नामों निशान नहीं रह गया है। वे कभी थे। आज से दस लाख साल पहले पृथ्‍वी बहुत से सरीसृप प्राणियों से भरी थी। लेकिन, आज हमारे घर में छिपकली के अतिरिक्‍त उनका कोई प्रतिनिधि नहीं है। छिपकली भी बहुत छोटा प्रतिनिधि है। दस लाख साल पहले उसके पूर्वज हाथियों से भी पाँच गुना बड़े होते थे। वे सब कहां खो गये, इतने शक्‍तिशाली पशु पृथ्‍वी से कैसे विलुप्‍त हो गये। किसी ने उन पर हमला किया?  किसी ने उन पर एटम बम, हाइड्रोजन बम गिराया? नहीं उनके खत्‍म होने की अद्भुत कथा है।

शुक्रवार, 1 अप्रैल 2011

संभोग से समाधि की और—30

प्रेम ओर विवाह-- 
     
      अगर मनुष्‍य जाति को परमात्‍मा के निकट लाना है, तो पहला काम परमात्‍मा की बात मत करिये। मनुष्‍य जाति को प्रेम के निकट ले आइये। जीवन जोखिम भरा है। न मालूम कितने खतरे हो सकते है। जीवन की बनी-बनाई व्‍यवस्‍था में न मालूम कितने परिवर्तन करने पड़ सकते है। लेकिन न पर करेंगे परिवर्तन तो यह समाज अपने ही हाथ मौत के किनारे पहुंच गया है। इसलिए मर जाएगा। यह बच नहीं सकता। प्रेम से रिक्‍त लोग ही युद्धों को पैदा करते है। प्रेम से रिक्‍त लोग ही अपराधी बनते है। प्रेम से रिक्‍त ही अपराध, क्रिमीनलिटी की जड़ है और सारी दुनियां में अपराधी फैलते चले जाते है।