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शनिवार, 28 जनवरी 2012

उमर ख्‍याम की रूबाइयां—047

उमर ख्याम की रूबाईया-(उमर ख्याम)-ओशो की प्रिय पुस्तके

उमर ख्‍याम  सुंदरी, शराबी, इश्‍क के बारे में लिखता है। उसे पढ़कर लगता है, यह आदमी बड़े से बड़ा सुखवादी होगा। उसकी कविता का सौंदर्य अद्वितीय है। लेकिन वह आदमी ब्रह्मचारी था। उसने कभी शादी नहीं की, उसका कभी किसी से प्रेम नहीं हुआ। वह कवि भी नहीं था। गणितज्ञ था। वह सूफी था। जब वह सौंदर्य के संबंध में लिखता तो ऐसा लगता कि वह स्त्री के सौंदर्य के बारे में लिख रहा है। नहीं, वह परमात्‍मा के सौंदर्य का बखान कर रहा है।

      .....पर्शियन भाषा में उसकी किताबों में चित्र बनाये हुए है और अल्‍लाह को साकी के रूप में चित्रित किया गया है—एक सुंदर स्‍त्री हाथ में सुराही लेकिर शराब ढाल रही है। सूफी शराब को प्रतीक की तरह इस्‍तेमाल करते है। जो इंसान अल्‍लाह से इश्‍क करता है उसे अल्‍लाह एक तरह की मस्‍ती देता है जो उसे बेहोश नहीं करती बल्‍कि होश में लाती है। एक मदहोशी जो उसे नींद से जगाती है।
      फिट्जरल्‍ड को इन प्रतीकों की कोई जानकारी नहीं थी। वह सीधा सरल पार्थिव कवि था। और वस्‍तुत: उमर ख्‍याम से बेहतर कवि था। जब उसने अनुवाद किया तो उसने यही समझा कि स्‍त्री यानी स्‍त्री, शराब यानी शराब। प्रेम यानी प्रेम। उसके लिए प्रतीक नहीं थे। फिट्जरल्‍ड ने अपनी गलतफहमी के द्वारा उमर ख्‍याम को विश्‍व विख्‍यात कर दिया। अगर तुम उमर ख्‍याम को समझने की कोशिश करोगे तो दोनों में इतना अंतर दिखाई देगा कि तुम हैरान होओगे कि फिट्जरल्‍ड ने उमर ख्‍याम के गणितिक मस्‍तिष्‍क से इतनी सुंदर कविता कैसे निर्मित की।
ओशो
फ्रॉम मिज़री टू इनलाइटमेंट
किताब की झलक--
     जागों मित्र, भरों प्‍याला, लो वह देखो प्राची की और
      राज अटारी पर चढ़ता रवि फेंक अरूण किरणों की डोर
      नभ के प्‍याले में दिन मणि को माणिक-सुधा ढालते देख
      कलियां अधर पुटों को खोले ललक रही आनंद-विभोर।
      
      पौ फटते ही मधुशाला में, गुंजा शब्‍द निराला एक,
      मधुशाला से हंस कर यों कहता था, मतवाला एक--
      स्‍वांग बहुत है रात रही पर थोड़ी, ढालों-ढालों शीध्र
      जीवन ढल जाने के पहिले ढालों मधु का प्‍याला एक।
       
      और कान में भनक पड़ी जब ऊधा मैं पीर कर दो चार
      कोई कहता था पुकार कर, ‘’मधुशाला का खोलों द्वार
      केवल चार घड़ी रहना है हम को, क्‍यों करते हो देर?
      एक बार के गये हुए न लौटेंगे न दूजी बार।

      लो फिर आई है वसंत ऋतु, हरी हुई फिर मन की आस
      व्‍यथित ह्रदय कहता है चल कर करें कही एकांत-निवास
      जहां लता-तरुणों के पत्‍ते हिलते ज्‍यों मूसा का हाथ
      और सुगंध सुमन-माला की उठती ज्‍यों ईसा की श्‍वास।
      देखो आज खिले है सुख के लाखों मधु-कलियों के गात--
      किंतु कहो तो कल इन में से कितने फेर खिलेंगे ताता,
      बूंद-बूंद टपका जाता हो, जीवन का मधु रस ख्याम,
      एक-एक कर झड़ते जा रहे पक-पक कर जीवन पात।
     
      कैकोवाद, कैखुसरो, दारा, रूस्तम और सिकंदर वीर--
      क्‍या जानें अब कहां छिपे वे बड़े-बड़े योद्धा रणधीर,
      किंतु आज भी विमल वारुण में जगती मणिक की ज्‍योति
      और चित को चंचल करता अब भी वन का स्‍निग्‍ध समीर
     
      अब भी, झुकी लदी गुच्‍छों से, अंगूरों की डाली देख--
      फूली, छकी, ओस की धोई नव गुलाब की प्‍याली देख
      भूली, अमी-अधखिली कलियों की चितवन की लाली देख
      पीओ-पीओ कहती फिरती है बुलबुल मतवाली देख।
     
      ला, ला, साकी। और-और ला; फिर प्‍याले पर प्‍याला ढाल,
      घर रख, गूढ-ज्ञान गाथा को, व्रत-विवेक चूल्हे में डाल।
      सिखला रहा ‘’त्‍याग’’ की पट्टी—कैसा ज्ञानी है तू मित्र।
      नहीं सूझता क्‍या तुझको वह यौवन यह मधु, यह मधुकाल?

            यों तो मैं भी नित्‍य सोचता हूं अब खाऊंगा सौगंध—
      इस प्‍याले का मोह तजूंगा, पानी कर दूँगा अब बंद।
      किंतु आज तो प्रकृति-प्रिया है आई सज फूलों का साज
      आज वसंतोत्‍सव है प्रियतम, आज न पीऊँ तो सौगंध।

      आज वसंतोत्‍सव है प्रियतम फूलों में फूटा रसराज
      मन की कसर निकालूंगा सब, तज कर लोक-लीक की लाज--
      पहिला प्‍याला पी, कर दूँगा बांझ बुद्धि बुढ़ियाँ का त्‍याग
      चढ़ा दूसरा, वरण करूंगा, वरूण नन्‍दिनी को फिर आज।
       
      कोई स्‍वर्ग लोक से सुख को कहता है अतोल, अनमोल,
      कोई राजपाट के ऊपर करता है मन डांवाडोल,
      गांठ बाँध ले मूर्ख नकद ने नौ, तेरह उधर के छोड़--
      यों तो लगते है, सुहावनें सब को सदा देर के ढोल।
      
      गांठ-बाँध लें मूर्ख नकद के, फिर की आशा पर मल भूल,
      सुन तो सही कह रहा है क्‍या हंस-हंस कर गुलाब का फूल--     
      जो सु-वर्ण लाता हूं जग में चलने से पहिले ही, मित्र।
      उपवन में बिखेर जाता हूं, रत्‍ती-रत्‍ती झाड़ दुकूल।
     
      हाँ, मिट्टी में मिल जाती है आशा सभी हमारी, तात।
      कभी खिली भी तो बस जैसे दो दिन की उँजियारी रात।
      हीरा-मोती लाल, धरा-धन-धाम-संपदा जितनी, हाय।
      क्षणिक मरुस्थल के तुषार सी उड़ जाती है सारी तात।
      
      और, मरुस्थल यह जीवन है, लेना सतर्कता से काम,
      काल-क़जाक़ प्राण हरने की घात लगाता आठों याम।
      सूख का प्‍यासा मृग-अबोध-मन, रखना इसको खूब संभाल
      स्‍वर्ग-नरक की मृग-तृष्‍णा में बहक न कही जाए ख्याम।

ओशो का नजरिया--
      उमर ख्‍याम, महान पर्शियन कवि था। उसने अपनी रूबाइयात में लिखा है.....रूबाइयात याने जैसे—जैसे में हाइकु होते है वैसे सूफियों में रूबाइयात होते है। एक रुबाई में वह कहता है:
      गुनाह क्‍या न किए, क्‍या खुदा रही न था,
      फिट्जरल्‍ड ने इसका अंग्रेजी में अनुवाद कर उसे विश्‍व विख्‍यात कर दिया।
ओशो
      मैं ‘’रूबाइयात’’ को भूल गया। मेरी आँख में आंसू आ रहे है। मैं और कुछ भी भूल जाऊं तो माफी मांग सकता हूं, लेकिन ‘’रूबाइयात’’ के विषय में नहीं। उस के विषय में मैं केवल आंसू बहा सकता हूं। आंसुओं के द्वारा क्षमा मांग सकता हूं। शब्‍द काफी नहीं होंगे। ‘’रूबाइयात’’ ऐसी किताब है जो संसार में सबसे अधिक पढ़ी गई। और सबसे कम समझी गई। उसका अनुवाद समझा गया है लेकिन उसकी आत्‍मा बिलकुल नहीं समझी गई। अनुवादक अपने शब्‍दों में आत्‍मा को नहीं उड़ेल सकता। ‘रूबाइयात’’ प्रतीकात्‍मक है, और अनुवादक सीधा-सादा अंग्रेज था—अमेरिका में उसे ‘’स्कवेअर’’ कहेंगे; कोई गोलाई नहीं। ‘’रूबाइयात’’ को समझने के लिए तुममें थोड़ी गोलाई चाहिए।
      ‘’रूबाइयात’’ सिर्फ मदिरा और महिषाक्षी के बारे में बातें करती है। और कुछ नहीं। बस शराब और सुंदरियों के गीत गाता रहता है। उसके अनुसार जो कि अनेक अनुवादक, जो कि अनेक है, सभी गलत है। ऐसा होना ही था क्‍योंकि उमर ख्‍याम सूफी था। तसव्वुफ़ का आदमी था—जो जानता है। सूफी अल्‍लाह को इसी तरह बुलाते है। महबूब....ओ मेरे महबूब....ओर वे अल्‍लाह के लिए स्त्रीलिंग वाचक शब्‍दों का उपयोग करते है। विश्‍व में और किसी ने, मनुष्‍य जाति और चेतना के पूरे इतिहास में, परमात्‍मा को स्‍त्री  की तरह संबोधित नहीं किया है। सिर्फ सूफी ही परमात्‍मा को महबूब कहते है।
      और शराब वह है जो आशिक माशूका के बीच घटती है, उसका अंगूरों से कोई लेना देना नहीं है। प्रेमी और प्रेमिका के बीच, शिष्‍य और गुरु के बीच, भक्‍त और भगवान के बीच जो रसायन, जो अल्‍केमी घटती है, जो रूपांतरण होता है। वह शराब है। ‘’रूबाइयात’’ को इतना गलत समझा गया है....शायद इसीलिए मैं उसे भूल गया।
ओशो
बुक्‍स आई हैव लव्‍ड

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