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सोमवार, 31 मार्च 2014

पतंजलि: योगसूत्र--(भाग--2) प्रवचन--24

प्रयास, अप्रयास और ध्‍यान—(प्रवचन—चौथा)

दिनांक 4 मार्च, 1975;
श्री रजनीश आश्रम  पूना।

प्रश्‍नसार:

1प्रकृति विरोध करती है अव्यवस्था का और अव्यवस्था स्वयं ही व्यवस्थित हो जाती है यथासमय तो क्यों दुनिया हमेशा अराजकता और अव्यवस्था में रहती रही है?

2—कैसे पता चले कि कोई व्‍यक्‍ति रेचन की ध्‍यान विधियों से गुजर कर अराजकता के पार चला गया है?

3—मन को अपने से शांत हो जाने देना है, तो योग की सैकड़ों विधियों की क्‍या अवश्‍यक्‍ता है?

4—आप प्रेम में डूबने पर जोर देते है लेकिन मेरी मूल समस्‍या भय है। प्रेम और भय क्‍या संबंधित है?

5—कुछ न करना,मात्र बैठना है, तो ध्‍यान की विधियों में इतना प्रयास क्‍यों करें?

रविवार, 30 मार्च 2014

अष्‍टावक्र: महागीता--(प्रवचन--47)

साक्षी आया, दुःख गया—प्रवचन—दूसरा  

दिनांक 27 नवंबर, 1976;
श्री रजनीश आश्रम पूना।

अष्‍टावक्र उवाच।

हेयोयादेयता तावत्संसार विटपांकर:।
स्पृहा जीवति यावद्वै निर्विचार दशास्थदम्।। 152।।
प्रवृत्तौ जायते रागो निवृत्तौ द्वेष एव हि।
निर्द्वद्वो बालबद्धीमानेवमेव व्यवस्थित:।। 153।।
हातुमिच्छति संसार रागी दुखजिहासयर।
वीतरागो हि निर्कुखस्तस्मिब्रपि न खिद्यते।। 154।।
यस्याभिमानो मोक्षेऽयि देहेउयि ममता तथा।
न न ज्ञानी न वा योगी केवलं दुःखभागसौ।। 155।।
हरो यद्युयदेष्टा ले हरि: कमलजोउयि वा।
तथापि न तब स्वास्थ्य सर्वविस्मरणाद्धतो।। 156।।

शनिवार, 29 मार्च 2014

अष्‍टावक्र: महागीता--(प्रवचन--46)

अष्‍टावक्र:  महागीता—(भाग—4)

ओशो

(ओशो द्वारा अष्‍टावक्र—संहिता के 152 से 196 सूत्रों पर प्रश्‍नोत्‍तर सहित दिनांक 26 नवंबंर से 10 दिसंबर 1976 तक ओशो कम्‍यून इंटरनेशनल, पूना में दिए गए पंद्रह अमृत प्रवचनों का संकलन।) 


अष्‍टावक्र कह रहे है: तुम शरीर से तो छूट ही जाओ, परमात्‍मा से भी छूटो। संसार की तो भाग—दौड़ छोड़ ही दो, मोक्ष की दौड़ भी मन में मत रखो। तृष्‍णा के समस्‍त रूपों को छोड़ दो। तृष्‍णा—मुक्‍त हो कर खड़े हो जाओ।


इसी क्षण परम आनंद बरसेगा। बरस ही रहा है। तुम तृष्‍णा की छतरी लगाये खड़े हो तो तुम नहीं भीग पाते। संत वही है जिसका संबंध ही गया। भोग तो व्‍यर्थ हुआ ही हुआ। त्‍याग भी व्‍यर्थ हुआ। भोग के साथ ही त्‍याग भी व्‍यर्थ हो जाये। तो तुम्‍हारे जीवन में क्रांति घटित होती है। अनिति के साथ ही साथ निति भी व्‍यर्थ हो जाती है। आशुभ के साथ ही शुभ भी व्‍यर्थ हो जायेगा। क्‍योंकि वे दोनों एक सिक्‍के के दो पहलू है। उसमें भेद नहीं।

ओशो
अष्‍टावक्र:  महागीता

शुक्रवार, 28 मार्च 2014

पतंजलि: योगसूत्र--(भाग--2) प्रवचन--23

सवितर्क समाधि: परिधि और केंद्र के बीच—(प्रवचन—तीसरा)

 दिनांक 3मार्च 1975;
श्री रजनीश आश्रम पूना।

योगसूत्र: (समाधिपाद)

श्रीणवृत्तेरभिजातस्‍येव मणेर्ग्रहीतृहणग्राह्मेषु तत्‍स्‍थतदन्‍जनता समापत्‍ति:।। 41।।

जब मन की क्रिया नियंत्रण में होती है, तब मन बन जाता है। शुद्ध स्‍फटिक की भांति। फिर वह समान रूप से प्रतिबिंबित करता है बोधकर्ता को, बोध को और बोध के विषय को।

तत्र शब्‍दार्थ ज्ञान विकल्‍पै: संकीर्णा सिवतर्का समापत्ति:।। 42।।

सवितर्क समाधि वि समाधि है, जहां योगी अभी भी वह भेद करने के योग्‍य नहीं रहता है, जो सच्‍चे ज्ञान के तथा शब्‍दो पर आधारित ज्ञान, और तर्क या इंद्रिय—बोध पर आधारित ज्ञान के बीच होता है—जो सब मिश्रित अवस्‍था में मन में बना रहाता है।

गुरुवार, 27 मार्च 2014

पंतजलि: योगसूत्र--(भाग--2) प्रवचन--22

जागरूकता की कीमिया—(प्रवचन—दूसरा) 

दिनांक 2 मार्च, 1975;
श्री रजनीश आश्रम, पूना।

प्रश्‍नसार:

1—मैं क्यों विरोध अनुभव करता हूं स्‍वच्‍छंद, स्‍वाभाविक होने तथा जाग्रत होने के बीच?

2—क्या दमन का योग में कोई विधायक उपयोग है?

3—ध्‍यान के दौरान शारीरिक पीड़ा का विक्षेप हो तो क्या करें?

4—प्रेम संबंध सदा दुःख क्‍यों लाते है।  

5—शिष्यत्व के विकास के लिए सदगुरू  के प्रेम में पड़ना क्‍या शिष्‍य के लिए जरूरी ही है?

6—बच्‍चे की ध्‍यान पूर्ण निर्दोषता क्‍या वास्‍तविक है?

7—(क) क्‍या दिव्‍य—दर्शन (विजन) भी स्‍वप्‍न ही है?
  (ख) निद्रा और स्‍वप्‍न में कैसे सचेत रहा जाये?
  (ग) क्‍या आप मेरे सपनों में आते है?

बुधवार, 26 मार्च 2014

पतंजलि: योगसूत्र--(भाग--2) प्रवचन--21

पतंजलि:  योग—सूत्र (भाग—2)
ओशो

(योग: दि अल्‍फा एंड दि ओगेगा शीर्षक से ओशो द्वारा अंग्रेजी में दिए गए सौ अमृत प्रवचनो में से द्वितीय बीस प्रवचनों  का हिंदी में अनुवाद।)

पतंजलि रहे है बड़ी अद्भुत मदद—अतलनीय। लाखों गुजर चुके है इस संसार से पंतजलि की सहायता से, क्‍योंकि वे अपनी समझ के अनुसार बात नहीं कहते; वे तुम्‍हारे साथ चलते है। और जैसे—जैसे तुम्‍हारी समझ विकसित होती है, वे ज्‍यादा गहरे और गहरे जाते है। पंतजलि पीछे हो लेते है शिष्‍य के। ......पतंजलि तुम तक आते है। .....पतंजलि तुम्‍हारा हाथ थाम लेते है और धीरे—धीरे वे तुम्‍हें (चेतना के) संभावित उच्‍चतम शिखर तक ले जाते है......।
पंतजलि बहुत युक्‍तियुक्‍त है—बहुत समझदार है।
वे बढ़ते है चरण—चरण; चे तुम्‍हें ले जाते है।
वहां से जहां तक कि तुम हो।
वे आते है घाटी तक; तुम्‍हारा हाथ थाम लेते है।
और कहते है—एक एक कदम उठाओ।....
पतंजलि की सुनना ठीक से। न ही केवल
सुनना,बल्‍कि कोशिश करना सारतत्‍व को
आत्‍मसात करने की।
बहुत कुछ संभव है उनके द्वारा।
वे इस पृथ्‍वी पर हुए अंतर्यात्रा के महानतम
वैज्ञानिकों में से एक है।
ओशो


निद्राकालीन जागरूकता—पहला प्रवचन 

मंगलवार, 25 मार्च 2014

पंतजलि: योगसूत्र--(भाग--1) प्रवचन--20

प्रथम ही अंतिम है—प्रवचन—बीसवां  

दिनांक 10 जनवरी; 1975
श्री रजनीश आश्रम पूना।

प्रश्‍नसार:

1—जिस तरह नकारात्मक विचार दुर्घटनाओं के रूप में मूर्त हो जाते हैं उसी तरह क्या विधायक विचार भी शुभ घटनाएं बन सकते हैं?

 2—जिसे आध्यात्मिक सिद्धि प्राप्त हुई हो ऐसे व्यक्ति में और बुद्धपुरुष में विकासात्मक अंतर क्या होता हे?

 3—आप एक साथ हम सब शिष्यों पर कैसे काम कर सकते हैं?

 4—अधिकतम लोग प्रेम की मूलभूत आवश्यकता पूरी क्यों नहीं कर सकते?

अष्‍टावक्र: महागीता--(प्रवचन--45)

धर्म एक आग है—प्रवचन—पंद्रहवां

दिनांक 25 नवंबर, 1976;
श्री रजनीश आश्रम, पूना।
सूूूत्र::
आचक्ष्‍व श्रृणु वा तात नानाशास्त्रोण्यनेकश:।
तथापि न तव स्वास्थ्यं सर्वविस्मरणाद्वते।। 146।।
भोगं कर्म समाधिं वा कुरु विज्ञ तथापि ते।
चित्तं निरस्तसर्वाशमत्यर्थं रोचयिष्यति।। 147।।
आयासत्सकलो दु:खी नैनं जानाति कश्चन।
अनेनैवोयदेशेन धन्य: प्राम्मोति निर्वृतिम्।। 148।।
व्यापारेखिद्यते यस्तु निमेषोत्मेषयोरपि।
तस्यालस्यधुरीणस्थ सुख नान्यस्य कस्यचित्।। 149।। 
हदं कृतमिदं नेति द्वंद्वैर्मुक्तं यदा मन:।
धर्मार्श्रकाममोक्षेषु निरयेक्ष तदा भवेत।। 150।!
विरक्तो विषयद्वेष्टा रागी विषयलोलय।
ग्रहमोक्षविहीनस्तु न विरक्तो न रागवान्। 151।।

सोमवार, 24 मार्च 2014

पंतजलि: योगसूत्र--(भाग--1) प्रवचन--19

समुचित मनोवृतियों का संवर्धन—प्रवचन—उन्‍नीसवां

दिनांक 9 जनवरी, 1975;
श्री रजनीश आश्रम, पूना।

योगसूत्र:

            मैत्रीकरुणामुदितोपेक्षाणां सुखदुःखपुण्यापुण्यविषयाणां
भावनातश्चित्तप्रसादनम्।। 33।।

आनंदित व्यक्ति के प्रति मैत्री, दुखी व्यक्ति के प्रति करुणा, पुण्यवान के प्रति मुदिता तथा पापी के प्रति उपेक्षा—इन भावनाओं का संवर्धन करने से मन शांत हो जाता है।

            प्रच्छर्दनविधारणाभ्यां वा प्राणस्थ।। 34।।

बारी—बारी से श्वास बाहर छोडने और रोकने से भी मन शांत होता है।

            विषयवती वा प्रवृत्तिरुत्पन्ना मनस: स्थितिनिबधनी।। 35।।

जब ध्यान से अतींद्रिय संवेदना उत्‍पन्न होती है तो मन आत्मविश्वास प्राप्त करता है और इसके कारण साधना का सातत्य बना रहता है।

पंतजलि: योगसूत्र--(भाग--1) प्रवचन--18

ओम् के साथ विसंगीत से संगीत तक—प्रवचन—अठारह  

दिनांक 8 जनवरी 1975;
श्री रजनीश आश्रम पूना।

प्रश्‍नसार:

 1—यह मार्ग तो शांति और जागरूकता का मार्ग है, फिर आपके आस—पास का हर व्यक्ति और हर इतनी अव्यवस्था में क्यों है?

  2—ओम् की साधना करते समय इसे मंत्र की तरह दोहरायें या एक आंतरिक नाद की तरह सुनें?

  3—पहले आप 'हूं, के मंत्र पर जोर देते थे, अब 'ओम् पर क्यों जोर दे रहे हैं?

  4—हमें आपके पास कौन—सी चीज ले आयी—शरीर की आवश्यकता या मन की आकांक्षा?

  5क्या योग और तंत्र के बीच कोई संश्लेषण खोजना संभव है?

  6—आपके सान्निध्य में ऊर्जा की लहरों का संप्रेषण और हृदय—द्वार के खुलने का अनुभव—यह कैसे घटता है? और इसे बारंबार कैसे घटने दिया जाये?

शनिवार, 22 मार्च 2014

अष्‍टावक्र: महागीता--(प्रवचन--44)

शूल है प्रतिपल मुझे आग बढ़ाते—प्रवचन—चौदहवां

दिनांक 24 नवंबर, 1976;
श्री रजनीश आश्रम पूना।

पहला प्रश्न :

आपके शिष्य वर्ग में जो अंतिम होगा, उसका क्या होगा?

 सा ने कहा है. जो अंतिम होंगे, वे मेरे प्रभु के राज्य में प्रथम हो जायेंगे। लेकिन अंतिम होना चाहिए। अंत में भी जो खड़ा होता है, जरूरी नहीं कि अंतिम हो। अंत में भी खड़े होने वाले के मन में प्रथम होने की चाह होती है। अगर प्रथम होने की चाह चली गई हो और अंतिम होने में राजीपन आ गया हो, स्वीकार, तथाता, तो जो ईसा ने कहा है, वही मैं तुमसे भी कहता हूं : जो अंतिम हैं वे प्रथम हो जायेंगे।

शुक्रवार, 21 मार्च 2014

पंतजलि: योगसूत्र--(भाग--1) प्रवचन--17

ध्‍यान की बाधाएं—प्रवचन—सत्रहवां

      दिनांक 7 जनवरी 1975;
      श्री रजनीश आश्रम, पूना।
     
योगसूत्र:
व्याधिख्यानसंशयप्रमादालस्थाविरति भ्रातिदर्शन
अलब्धभूमिकत्वानवस्थितत्वानि चित्तविक्षेपास्तेऽन्तराया:।। 30।।

रोग, निर्जीवता, संशय (संदेह), प्रमाद, आलस्य, विषयासक्ति, भांति, दुर्बलता और अस्थिरता वे हैं जो मन में विक्षेप लाती हैं

            दु:खदौर्मनस्थांगमेजयत्वश्वासप्रश्वासा विक्षेपसहभुव:।। 31।।

दुख, निराशा, कंपकंपी और अनियमित श्वसन विक्षेपयुक्त मन के लक्षण हैं।

            तअतिषेधार्थमेकतत्वाथ्यास:।। ३२।।

इन बाधाओ को दूर करने के लिए एक तत्व पर ध्यान करना।

अष्‍टावक्र: महागीता--(प्रवचन--43)

प्रभु की प्रथम आहट—निस्‍तब्‍धता में—प्रवचन—तैहरवां 

            दिनांक 23 नवंबर, 1976;
            रजनीश आश्रम, पूना।

अष्‍टावक्र उवाच।

यत्‍वं पश्यसि तत्रैकस्लमेव प्रतिभाससे।
किं पृथक भासते स्वर्णात्कट कांगदनुपरम्।। 139।।
अयं सोउहमयं नाहं विभागमिति संत्यज।
सर्वमात्मेति निश्चित्य नि:संकल्य सुखी भव!! 140।।
तवैवाज्ञानतो विश्व त्वमेक: परमार्थत:।
त्वत्तोउन्यो नास्ति संसारी नासंसारी व कश्चन।। 141।।
भ्रांतिमात्रमिदं विश्व न किचिदिति निश्चयरई।
निर्वासन: स्फर्तिमात्रो न किचिदिवि शाम्यति।। 142।।
एक एव भवाभोधावासीदस्ति भविष्यति।
न ते बंधोउस्ति मोक्षो वा कृतकृत्य: सुख चर।। 143।।


मा संकल्यविकल्याथ्यां चित्त क्षोभय चिन्मय।
उपशाम्ब सखं तिष्ठ स्वात्ययानंदविग्रहे।। 144।।
त्यजैव ध्यानं सर्वत्र मा किचियदि धारय।
आत्मा त्वं मुक्त श्वामि किविमृश्य करिष्यसि।। 145।।

गुरुवार, 20 मार्च 2014

पंतजलि: योगसूत्र--(भाग--1) प्रवचन--16

मैं एक नूतन पथ का प्रारंभ हूं—प्रवचन—सौलहवां  

दिनांक 6 जनवरी, 1975;
श्री रजनीश आश्रम पूना।

प्रश्‍नसार:

1—क्या आप किसी गुरुओं के गुरु द्वारा निर्देश ग्रहण करते हैं?

2—गुरुओं को किसी प्रधान गुरु द्वारा निर्देश पाने की क्या आवश्यकता होती है?

3—हम अपनी स्तुइर्च्छत और अहंकारग्रस्त अवस्था में हमेशा गुरु के संपर्क में नहीं होते लेकिन क्या गुरु हमेशा हमारे संपर्क में होता है?

4—इच्छाओं का दमन किये बगैर उन्हें कैसे काटा जा सकता है?

पंतजलि: योगसूत्र--(भाग--1) प्रवचन--15

गुरूओं का गुरु—प्रवचन—पंद्रहवां

दिनांक 5 जनवरी, 1976;
श्री रजनीश आश्रम, पूना।

योगसूत्र:

            पूवेंषामपिगुरु कालेनानवच्छेदात्।। 26।।

समय की सीमाओं के बाहर होने के कारण वह गुरुओं का गुरु है।

            तस्य वाचक: प्रणव:.।। 27।।

उसे ओम् के रूप में जाना जाता है।

            तजपस्तदर्थभावनमू।। 28।।

ओम को दोहराओ और इस पर ध्यान करो।


 ततः प्रत्यक्येतनाधिगमोऽप्यन्तरायाभावश्र।। 29।।

ओम् को दोहराना और उस पर ध्यान करना सारी बाधाओं का विलीनीकरण और एक नवचेतना का जागरण लाता है।