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बुधवार, 30 अप्रैल 2014

जिनसूत्र--(भाग--1) प्रवचन--19


धर्म की मूल भित्‍ति: अभय—प्रवचन—उन्‍नीसवां

सूत्र:

णवि होदि अप्‍पमत्‍तो,पमत्‍तो जाणओ दु जो भावो
एवं भणंति सुद्धं, णाओ जो सो उ सो चेव।। 48।।

णाहं देहोमणो,चेव वाणी ण कारणं तेसि
कत्‍ता ण ण कारयिदा, अणुमंता णेव कत्‍तीणं।। 49।।

को णाम भणिज्‍ज बुहो णाउं णाउं सव्‍वे सव्‍वे पराइए भावे।
मज्‍झमिणं ति य वयणं, जाणंतो अप्‍पयं सुद्धं।। 50।।

अहमिक्‍को खलु सुद्धो, णिम्‍ममओ णाणदं सणसमग्‍गो
तम्‍हि ठिओ तच्‍चित्‍तो, सव्‍वे एए खयं णेमि।। 51।।


जीवन थोड़ी देर को है। सुबह हो गई तो जल्दी सांझ भी होगी। जन्म हुआ तो मौत आने लगी ही तुम्हारे पास।

गीता दर्शन--(भाग--2) प्रवचन--042

चरण-स्पर्श और गुरु-सेवा (अध्याय ४) प्रवचन—चौदहवां


श्रेयान्द्रव्यमयाद्यज्ञाज्ज्ञानयज्ञः परंतप।
सर्वं कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते।। 33।।

हे अर्जुन, सांसारिक वस्तुओं से सिद्ध होने वाले यज्ञ से ज्ञानरूप यज्ञ सब प्रकार श्रेष्ठ है, क्योंकि हे पार्थ, संपूर्ण यावन्मात्र कर्म ज्ञान में शेष होते हैं, अर्थात ज्ञान उनकी पराकाष्ठा है।


न मांगता रहता है संसार को; वासनाएं दौड़ती रहती हैं वस्तुओं की तरफ; शरीर आतुर होता है शरीरों के लिए; आकांक्षाएं विक्षिप्त रहती हैं पूर्ति के लिए--ऐसे एक यज्ञ तो जीवन में चलता ही रहता है। यह यज्ञ चिता जैसा है। आग तो जलती है, लपटें तो वही होती हैं। जो हवन की वेदी से उठती हैं लपटें, वे वे ही होती हैं, जो लपटें चिता की अग्नि में उठती हैं। लपटों में भेद नहीं होता। लेकिन चिता और हवन में तो जमीन-आसमान का भेद है।

हमारा जीवन भी आग की लपट है। लेकिन वासनाएं जलती हैं उसमें; उन लपटों में आकांक्षाएं, इच्छाएं जलती हैं। गीला ईंधन जलता है इच्छा का, और सब धुआं-धुआं हो जाता है। ऐसे आग में जलते हुए जीवन को भी यज्ञ कहा जा सकता है, लेकिन अज्ञान का, अज्ञान की लपटों में जलता हुआ।

रविवार, 27 अप्रैल 2014

जिनसूत्र--(भाग-1) प्रवचन--18

धर्म आविष्‍कार है—स्‍वयं का—प्रवचन—अठारहवां

प्रश्‍नसार:

1—कृष्ण कहते हैं कि मारो और महावीर कहते हैं कि हिंसा का विचार-मात्र हिंसा है। कृपया बतायें कि दोनों में श्रेष्ठ कौन है?

2—बहुत समय से मैं आपके पास हूं और में बहुत अज्ञानी और निर्बुद्धि हूं—यह आप भली भांति जानते है। आपकी कहीं अनेक बाते मेरे सर के ऊपर से गुजर जाती है। परमात्‍मा की प्‍यास का मुझे कुछ पता नहीं? फिर मैं क्‍यों यहां हूं और यह ध्‍यान—साधना वगैरह क्‍या कर रही हूं?

3—जीवन व अस्‍तित्‍व के परम सत्‍यों की क्‍या निरपेक्ष अभिव्‍यक्‍त्‍िा संभव नहीं है?

4—किसी प्‍यासे को जब मैं आपके पाल लाती हूं तो वह मुझसे दूर हो जाता है। मुझे एक तड़प सी होती है।

5—लेकिन तेरी जो मर्जी कहकर गा पड़ती हूं: राम श्री राम जय जय राम।

अष्‍टावक्र: महागीता--(प्रवचन--57)

तथाता का सूत्र—सेतु है—प्रवचन—बारहवां

दिनांक 7 दिसंबर, 1976;
श्री रजनीश आश्रम, पूना।

अष्‍टावक्र उवाच:

आत्मा ब्रह्मेति निश्चित्य भावाभावौ व कल्पितौ।
निष्काम: किविजानाति किंब्रूते च करोति किम्।। 184।।
अयं सोउहमयं नाहमिति क्षीणा विकल्पना:।
सर्वमात्मेति निश्चित्य तूष्णीभूतस्थ योगिनः।। 185।।
न विक्षेयो न चैकाग्रयं नातिबोधो न मूढ़ता।
न सुखं न च वा दुःखमुयशांतस्थ योगिनः।। 186।।
स्वराज्ये भैशवृत्तौ न लाभालाभे जने वने।
निर्विकल्यस्वभावस्थ न विशेषोउस्ति योगिनः।। 187।।
क्य धर्म: क्य न वा काम: क्य चार्थ क्य विवेकिता।
ड़दं कृतमिद नेति द्वंद्वैर्मुक्तस्थ योगिनः।। 188।।
कृत्य किमयि नैवास्ति न कायि हृदि रंजना।
यथा जीवनमेवेह जीवनमुक्तस्थ योगिनः।। 189।।

गीता दर्शन--(भाग--2) प्रवचन--041

मृत्यु का साक्षात (अध्याय ४)—तेरहवां प्रवचन


यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्म सनातनम्
नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतोऽन्यः कुरुसत्तम।। 31।।

हे कुरुश्रेष्ठ अर्जुन, यज्ञों के परिणामरूप ज्ञानामृत को भोगने वाले योगीजन सनातन परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त होते हैं और यज्ञरहित पुरुष को यह मनुष्य लोक भी सुखदायक नहीं है, तो फिर परलोक कैसे सुखदायक होगा?


जीवन जिनका यज्ञरूप है, वासनारहित, अहंकारशून्य, ऐसे पुरुष परात्पर ब्रह्म को उपलब्ध होते हैं, अमृत को उपलब्ध होते हैं, आनंद को उपलब्ध होते हैं। लेकिन जिनका जीवन यज्ञ नहीं है, ऐसे पुरुष तो इस पृथ्वी पर ही आनंद को उपलब्ध नहीं होते, परलोक की बात तो करनी व्यर्थ है। इस सूत्र में कृष्ण ने दोत्तीन बातें अर्जुन से कहीं।
एक, जिनका जीवन यज्ञ बन जाता!

शनिवार, 26 अप्रैल 2014

जिनसूत्र--(भाग--1) प्रवचन--17


आत्‍मा परम आधार है—प्रवचन—सत्रहवां

सूत्र:

आरूहवि अंतरप्‍पा बहिरप्‍पो छंडिऊण तिविहेण
झाइज्‍जइ परमप्‍पा, उवइट्ठं जिणवरिदेहिं।। 45।।

णिद्दण्‍डो णिद्दण्‍डो, णिम्‍ममो णिरालंबो
णीरागो णिद्दोसो, णिम्‍मूढो णिब्‍भयो अप्‍पा।। 46।।

णिग्‍गंथो णीरागो, णिस्‍सल्‍लो सयलदोसणिम्‍मूक्‍को
णिक्‍कामो णिस्‍कोहो, णिम्‍माणो अप्‍पा।। 47।।

अदम के तारीक रस्ते में
      कोई मुसाफिर न राह भूले
मैं शमए-हस्ती बुझाके अपनी
      चिरागेत्तुरबत जला रहा हूं।
जीवन के रास्ते पर जिन्होंने अपने को परिपूर्ण मिटा दिया है, वे ही केवल ऐसा प्रकाश बन सके हैं जिनसे भूले-भटकों को राह मिल जाये। जिसने अपने को बचाने की कोशिश की है, वह दूसरों को भटकाने का कारण बना है। और जिसने अपने को मिटा लिया, वह स्वयं तो पहुंचा ही है; लेकिन सहज ही, साथ-साथ, उसके प्रकाश में बहुत और लोग भी पहुंच गये हैं।

शुक्रवार, 25 अप्रैल 2014

अष्‍टावक्र: महागीता--(प्रवचन--56)

आलसी शिरोमणि—प्रवचन—ग्‍यारहवां

6 दिसंबर, 1976;
श्री रजनीश आश्रम, पूना।

पहला प्रश्न :

बड़ी जहमतें उठायीं तेरी बंदगी के पीछे मेरी हर खुशी मिटी है तेरी हर खुशी के पीछे मैं कहा—कहा न भटका तेरी बकी के पीछे! अब आगे मैं क्या करूं, यह बताने की अनकंपा करें।

 रने में भटकन है। फिर पूछते हो, आगे क्या करूं! तो मतलब हुआ : अभी भटकने से मन भरा नहीं। करना ही भटकाव है। साक्षी बनो, कर्ता न रहो।..... .तो फिर मेरे पास आ कर भी कहीं पहुंचे नहीं। फिर भटकोगे। किया कि भटके। करने में भटकन है। कर्ता होने में भटकन है। लेकिन मन बिना किये नहीं मानता। वह कहता है, अब कुछ बतायें, क्या करें?

गीता दर्शन--(भाग--2) प्रवचन--040

अंतर्वाणी-विद्या (अध्याय ४)—बारहवां प्रवचन

प्रश्न:

भगवान श्री, अट्ठाइसवें श्लोक में चार यज्ञों की बात कही गई है। दो यज्ञों पर चर्चा हो चुकी है, सेवारूपी यज्ञ और स्वाध्याय यज्ञ। तीसरे तप यज्ञ का क्या अर्थ है? उसे यहां स्वधर्म पालनरूपी यज्ञ क्यों कहा गया है? और चौथे योग यज्ञ का क्या अर्थ है? उसे यहां अष्टांग योगरूपी यज्ञ क्यों कहा गया है?


स्वधर्मरूपी यज्ञ। व्यक्ति यदि अपनी निजता को, अपनी इंडिविजुअलिटी को, उसके भीतर जो बीजरूप से छिपा है उसे, फूल की तरह खिला सके, तो भी वह खिला हुआ व्यक्तित्व का फूल परमात्मा के चरणों में समर्पित हो जाता है और स्वीकृत भी।
व्यक्ति की भी एक फ्लावरिंग है; व्यक्ति का भी फूल की भांति खिलना होता है। और जब भी कोई व्यक्ति पूरा खिल जाता है, तभी वह नैवेद्य बन जाता है। वह भी प्रभु के चरणों में समर्पित और स्वीकृत हो जाता है।

गीता दर्शन--(भाग--2) प्रवचन--039

स्वाध्याय-यज्ञ की कीमिया (अध्याय ४)—ग्यारहवां प्रवचन

प्रश्न:

भगवान श्री, अट्ठाइसवें श्लोक में स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च का अनुवाद दिया है, भगवान के नाम का जप तथा भगवतप्राप्ति विषयक शास्त्रों का अध्ययन रूप ज्ञान-यज्ञ के करने वाले। कृपया स्वाध्याय-यज्ञ को समझाएं।


स्वाध्याय-यज्ञ गहरे से गहरे आत्म-रूपांतरण की एक प्रक्रिया है। और कृष्ण ने जब कहा था यह सूत्र, तब शायद इतनी प्रचलित प्रक्रिया नहीं थी स्वाध्याय-यज्ञ, जितनी आज है। आज पृथ्वी पर सर्वाधिक प्रचलित जो प्रक्रिया आत्म-रूपांतरण की है, वह स्वाध्याय-यज्ञ है। इसलिए इसे ठीक से, थोड़ा ज्यादा ही ठीक से समझ लेना उचित है।
आधुनिक मनुष्य के मन के निकटतम जो प्रक्रिया है, वह स्वाध्याय-यज्ञ है। कृष्ण ने तो उसे चलते में ही उल्लेख किया है। उस समय बहुत महत्वपूर्ण वह नहीं थी, बहुत प्रचलित भी नहीं थी। कभी कोई साधक उसका प्रयोग करता था। लेकिन सिगमंड फ्रायड, गुस्ताव जुंग, अल्फ्रेड एडलर, सलीवान, फ्रोम और पश्चिम के सारे मनोवैज्ञानिकों ने स्वाध्याय-यज्ञ को बड़ी कीमत दे दी है।

गुरुवार, 24 अप्रैल 2014

जिनसूत्र--(भाग--1) प्रवचन--16

उठो, जागो—सुबह करीब है—प्रवचन सोलहवां

प्रश्‍नसार:

1—जैसे महावीर के अहिंसा शब्‍द का गलत अर्थ लिया गया,
   ऐसे ही क्‍या आपका प्रेम शब्‍द खतरे से नहीं भरा है?

2—जो दीया तूफान से बुझ गया, उसे फिर जला के क्‍या करूं?
   जो परमात्‍मा घर से ही भटक गया, उसे घर वापस बुला के क्‍या करूं?

3—तेरे गुस्‍से से भी प्‍यार, तेरी मार भी स्‍वीकार।



 पहला प्रश्न:

कल आपने बताया कि महावीर ने प्रेम शब्द का उपयोग नहीं किया, क्योंकि लोग उसका गलत अर्थ लेते हैं--और यह कि आज लोग अहिंसा का गलत अर्थ लेते हैं, इसलिए आप प्रेम शब्द का उपयोग करते हैं। पर जैसा लोग महावीर के समय में प्रेम शब्द का गलत अर्थ करते थे, क्या आज भी वही स्थिति नहीं है? और आपके द्वारा सर्वाधिक उपयुक्त शब्द, प्रेम, क्या आज भी खतरे से भरा नहीं है?

मंगलवार, 22 अप्रैल 2014

जिनसूत्र--(भाग--1) प्रवचन--15


मनुष्‍यो सतत जाग्रत रहो—प्रवचन—पंद्रहवां

सूत्र:

सीतंति सुवंताणं, अत्‍था पुरिसाण लोगसारत्‍था
तम्‍हा जागरमाणा, विधुणध पोराणयं कम्‍मं।। 39।।

जागरिया धम्‍मीणं, अहंम्‍मीणंसुत्‍तया संया
वच्‍छाहिवभगिणीए, अकहिंसु जिणो जयंतीए।। 40।।

पमायं कम्‍ममाहंसु, अप्‍पमायं तहाउवरं
तब्‍भावादेसओ वावि, बालं पंडितमेव वा।। 41।।

कम्‍मुणा कम्‍म खवेंति वाला, अकम्‍मुणा कम्‍म खवेंति धीरा।
मेधाविणो लोभमया ववीता, संतोसिणो नौ पकरेंति पावं।। 42।।


जागरह नरा! णिच्‍चं, जागरमाणस्‍स बड्ढते बुद्धी
जो सुवति ण सो धन्‍नो, जो जग्‍गति सो सया धन्‍नो।। 43।।

जह दीवा दीवसयं पइप्‍पए सो य दिप्‍पय दीवो।
दीवसमा आयरिया, दीप्‍पंति परंदीवेति।। 44।।

रविवार, 20 अप्रैल 2014

जिनसूत्र--(भाग--1) प्रवचन--14

प्रेम से मुझे प्रेम है—प्रवचन—चौदहवां

प्रश्‍नसार:

1--परंपरा-भंजक महावीर ने स्वयं को चौबीसवां तीर्थकर क्‍यों स्‍वीकार किया?

2—महावीर का स्‍वयं सदगुरू, तीर्थंकर बनना व शिष्‍यों को दीक्षा देना—क्‍या उनके ही सिद्धांत के विपरीत नहीं है?

3—वर्तमान शताब्‍दि में आप हमें कौन—सा शब्‍द देना पसंद करेंगे?

4—आपके सामने दिन खोलूं कि नहीं खोलूं—मुझे घबराहट होती है। और क्‍या मैं कुछ भी नहीं कर पाती? मेरी हिम्‍मत अब टूटी जा रही है।


पहला प्रश्न:

परंपरा-भंजक महावीर ने स्वयं को प्राचीनतम जिन-परंपरा का चौबीसवां तीर्थंकर क्योंकर स्वीकार किया होगा? कृपया समझाएं!

गीता दर्शन--(भाग--2) प्रवचन--038

संन्यास की नई अवधारणा—(अध्याय-3) प्रवचन—दसवां


सर्वाणीन्द्रियकर्माणि प्राणकर्माणि चापरे
आत्मसंयमयोगाग्नौ जुह्वति ज्ञानदीपिते।। 27।।

और दूसरे योगीजन संपूर्ण इंद्रियों की चेष्टाओं को तथा प्राणों के व्यापार को ज्ञान से प्रकाशित हुई परमात्मा में स्थितिरूप योगाग्नि में हवन करते हैं।

ज्ञानी परमात्मा को भेंट भी करे, तो क्या भेंट करे? अज्ञानी न परमात्मा को जानता, न स्वयं को जानता। न उसे उसका पता है, जिसको भेंट करनी है; न उसका पता है, जिसे भेंट करनी है। स्वभावतः, उसे यह भी पता नहीं है कि क्या भेंट करना है।
अज्ञानी जिन चीजों से आसक्त होता है, उन्हीं को परमात्मा को भेंट भी कर आता है। जो उसे प्रीतिकर लगता है, वही वह परमात्मा के चरणों में भी चढ़ाता है। भोग लगता है प्रीतिकर, भोजन लगता है प्रीतिकर, तो परमात्मा के द्वार पर चढ़ा आता है। फूल लगते हैं प्रीतिकर, तो परमात्मा के चरणों में रख आता है। सोचता है, शायद जो उसे प्रीतिकर है, वही परमात्मा को भी प्रीतिकर है।

गीता दर्शन--(भाग--2) प्रवचन--037

यज्ञ का रहस्य (अध्याय ४) प्रवचन—नौवां


दैवमेवापरे यज्ञं योगिनः पर्युपासते
ब्रह्माग्नावपरे यज्ञं यज्ञेनैवोपजुह्वति।। 25।।

और दूसरे योगीजन देवताओं के पूजनरूप यज्ञ को ही अच्छी प्रकार उपासते हैं अर्थात करते हैं और दूसरे ज्ञानीजन परब्रह्म परमात्मा रूप अग्नि में यज्ञ के द्वारा ही यज्ञ को हवन करते हैं।

ज्ञ के संबंध में थोड़ा-सा समझ लेना आवश्यक है।
धर्म अदृश्य से संबंधित है। धर्म आत्यंतिक से संबंधित है। पाल टिलिक ने कहा है, दि अल्टिमेट कंसर्न। आत्यंतिक, जो अंतिम है जीवन में--गहरे से गहरा, ऊंचे से ऊंचा--उससे संबंधित है। जीवन के अनुभव के जो शिखर हैं, अब्राहिम मैसलो जिन्हें पीक एक्सपीरिएंस कहता है, शिखर अनुभव, धर्म उनसे संबंधित है।

शनिवार, 19 अप्रैल 2014

जिनसूत्र--(भाग--1) प्रवचन--13

वासना ढपोरशंख है—प्रवचन—तेरहवां

सारसूत्र:

जीववहो अप्‍पवहो, जीवदया अप्‍पणो दया होइ।
ता सव्‍वजीवहिंसा, परिचत्‍ता अत्‍त कामेहिं।। 32।।

तुमं सि नाम स चव, जं हंतव्‍वं ति मन्‍नसि
तुमं सि नाम स चेव, जं अज्‍जावेयव्‍वं ति मन्‍नसि।। 33।।

रागादीणमणुप्‍पासो, अहिंसकत्‍तं त्ति देसियं समए
तेसिं चे उप्‍पत्‍ती, हिंसेत्‍ति जिणेहि णिद्दिट्ठा।। 34।।

अज्‍झवसिएण बंधो, सत्‍ते मारेज्‍ज मा थ मारेज्‍ज
एसो बंधसमासो, जीवाणं णिच्‍छयणयस्‍स।। 35।।

हिंसा दो अविरमणं, वहपरिणामो य होइ हिंसा हु।
तम्‍हा पमत्‍तजोग, पाणव्‍ववरोवओ णिच्‍चं।। 36।।

शुक्रवार, 18 अप्रैल 2014

गीता दर्शन--(भाग--2) प्रवचन--036

मैं मिटा, तो ब्रह्म—(अध्याय ४) प्रवचन—आठवां

यदृच्छालाभसंतुष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सरः
समः सिद्धावसिद्धौकृत्वापिनिबध्यते।। 22।।

और अपने आप जो कुछ आ प्राप्त हो, उसमें ही संतुष्ट रहने वाला और द्वंद्वों से अतीत हुआ तथा मत्सरता अर्थातर् ईष्या से रहित, सिद्धि और असिद्धि में समत्व भाव वाला पुरुष कर्मों को करके भी नहीं बंधता है।


जो प्राप्त हो उसमें संतुष्ट, द्वंद्वों के अतीत--इन दो बातों को ठीक से समझ लेना उपयोगी है।
जो मिले, उसमें संतुष्ट! जो मिले, उसमें संतुष्ट कौन हो सकता है? चित्त तो जो मिले, उसमें ही असंतुष्ट होता है। चित्त तो संतोष मानता है उसमें, जो नहीं मिला और मिल जाए। चित्त जीता है उसमें, जो नहीं मिला, उसके मिलने की आशा, आकांक्षा में। मिलते ही व्यर्थ हो जाता है। चित्त को जो मिलता है, वह व्यर्थ हो जाता है; जो नहीं मिलता है, वही सार्थक मालूम होता है।

गीता दर्शन--(भाग--2) प्रवचन--035

कामना-शून्य चेतना—(अध्याय 4) प्रवचन—सातवां



यस्य सर्वे समारम्भाः कामसंकल्पवर्जिताः
ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पण्डितं बुधाः।। 19।।

और हे अर्जुन, जिसके संपूर्ण कार्य कामना और संकल्प से रहित हैं, ऐसे उस ज्ञान-अग्नि द्वारा भस्म हुए कर्मों वाले पुरुष को ज्ञानीजन भी पंडित कहते हैं।

कामना और संकल्प से क्षीण हुए, कामना और संकल्प की मुक्तिरूपी अग्नि से भस्म हुए...। चेतना की ऐसी दशा में जो ज्ञान उपलब्ध होता है, ऐसे व्यक्ति को ज्ञानीजन भी पंडित कहते हैं। इसमें दोत्तीन बातें गहरे से देख लेने की हैं।
एक तो, ज्ञानीजन भी उसे पंडित कहते हैं।
अज्ञानीजन तो पंडित किसी को भी कहते हैं। अज्ञानीजन तो पंडित उसे कहते हैं, जो ज्यादा सूचनाएं संगृहीत किए हुए है। अज्ञानीजन तो पंडित उसे कहते हैं, जो शास्त्र का जानकार है। अज्ञानीजन तो पंडित उसे कहते हैं, जो तर्कयुक्त विचार करने में कुशल है।

अष्‍टावक्र: महागीता--(प्रवचन--55)

परमात्‍मा हमारा स्‍वभावसिद्ध अधिकार है—प्रवचन--दसवां

दिनांक 5 दिसंबर, 1976;
श्री रजनीश आश्रम पूना।

सूत्रसार:

अष्‍टावक्र उवाच:

यस्य बोधोदये तावक्यम्नवद्भवति भ्रम:।
तस्मै सुखैकरूयाय नम: शांताय तेजसे।। 177।।
अर्जयित्वाउखिलानार्थान् भोगानाम्मोति पुष्कलान्।
नहि सर्वयरित्यागमतरेण सखी भवेत।। 178।।
कर्तव्यदु:खमार्तडब्बालादग्धांतरात्मनः।
कुतः प्रशमयीयूषधारा सारमृते सुखम्।। 179।।
भवोउयं भावनामात्रो न किंचित्यरमार्थत।
नात्‍स्‍यभाव: स्वभावानां भावाभार्वावभाविनाम्।। 180।।
न दूरं न च संकोचाल्लब्धमेवात्मन: पदम्।
निर्विकल्प निरायासं निर्विकार निरंजनम्।। 181।।
व्यामोहमात्रविरतौ स्वरूपादानमात्रत:।
वीतशोका विराजंते निरावरणदृष्टय:।। 182।।
समस्त कल्यनामात्रमात्मा मक्त: सनातन:।
इति विज्ञाय धीरो हि किमथ्यस्यति बालवत्।। 183।।