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शनिवार, 31 अक्तूबर 2015

मेरा स्‍वर्णिम भारत--(प्रवचन--42)

परिशिष्‍ट2

शब्द जो साकार हो गया है...

 शब्द साकार हुआ था पहले—पहल यहीं, भारत में;
विपाशा, वितस्ता, शतदु, सरस्वती किसी पुण्य—सलिला के तट पर।
आंखें मूंदे, मौन खड़ा था ऋषि, शब्द का अनुसंधान करते; उसे लय में पिरोते।
सहसा कुहासा—सा छटा; पूरब कुछ लाल—लाल—सा दिखा;
हवा कुछ इठलाती—सी लगी और पाखियों का संगीत दिगन्तों तक फैल गया।
उसने कहां, 'प्रकाश हो' और प्रकाश हो गया!
.. .वह भगवान था। भगवत्ता उस समय उसमें अवतरित हुई थी। ऋषियों की यह परंपरा सनातन है। सरस्वती के किनारे भरतों के कुल में जन्मा बालक मंत्र—दर्शन करने लगा, विश्वामित्र बन गया। उसकी रची ऋचाएं श्रुति बनीं, स्मृतियों ने सहेजा उन्हें।

मेरा स्‍वर्णिम भारत--(प्रवचन--41)

परिशिष्‍ट1

भारत : एक अनूठी संपदा


 प्‍यारे ओशो!
भारत में आपके पास होना, दुनिया में और कहीं भी आपके सान्निध्य में होने से अधिक प्रभावमय है। प्रवचन के समय आपके चरणों में बैठना ऐसा लगता है जैसे संसार के केंद्र में, हृदय—स्थल में स्थित हों। कभी—कभी तो बस होटल के कमरे में बैठे—बैठे ही आंखें बंद कर लेने पर मुझे महसूस होता है कि मेरा हृदय आपके हृदय के साथ धड़क रहा है।
सुबह जागने पर जब आसपास से आ रही आवाजों को सुनती हूं तो वे किसी भी और स्थान की अपेक्षा, मेरे भीतर अधिक गहराई तक प्रवेश कर जाती हैं। ऐसा अनुभव होता है कि यहां पर ध्यान बडी सहजता से, बिना किसी प्रयास के, नैसर्गिक रूप से घटित हो रहा है।
क्या भारत में आपके कार्य करने की शैली भिन्न है, अथवा यहां कोई ''प्राकृतिक बुद्ध— क्षेत्र ''जैसा कुछ है?
लतीफा! भारत केवल एक भूगोल या इतिहास का अंग ही नहीं है। यह सिर्फ एक देश, एक राष्ट्र, एक जमीन का टुकड़ा मात्र नहीं है।

शुक्रवार, 30 अक्तूबर 2015

तंत्र--सूत्र--(भाग--3) प्रवचन--48

तुम ही लक्ष्‍य हो—(प्रवचन—अड़तालीसए)

प्रश्‍नसार:
1—प्रेरणा और आदर्श में क्‍या फर्क है? क्‍या किसी जिज्ञासु
के लिए किसी से प्रेरणा लेना गलत है?
      2—सामान्‍य होना क्‍या है? और आजकल इतनी विकृति क्‍यों है?
      3—बोध को उपलब्‍ध हुए बिना उसे अनुभव कैसे किया जा सकता है?
            जो अभी घटा नहीं है उसका भाव कैसे संभव है?

पहला प्रश्न :

कल रात आपने कहा कि कृष्ण, क्राइष्ट और बुद्ध मनुष्य की संभवना और विकास के गौरीशंकर है, और फिर आपने कहा कि योग और तंत्र का मनोविज्ञान मनुष्य के सामने कोई आदर्श नहीं रखता है और तंत्र के अनुसार कोई भी आदर्श रखना एक भूल है। इस संदर्भ में कृपया समझाएं की प्रेरणा और आदर्श में क्या फर्क है। किसी जिज्ञासु के जीवन में प्रेरणा का क्या स्थान है? और यह भी समझाने की कृपा करें कि क्या किसी ध्यानी के लिए किसी महापुरुष से प्रेरणा लेना भी एक भूल है।

मेरा स्‍वर्णिम भारत--(प्रवचन--40)

चरैवेति, चरैवेति.....ओ स्‍वर्णयुग!(प्रवचनचालीसवां)  

प्यारे ओशो!
कलि: शयानो भवति संजिहानस्तु द्वापर:।
उत्तिष्ठंस्त्रेता भवति कृतं संपद्यते चरन्:।।
चरैवेति। चरैवेति।।
'जो सो रहा है वह कलि है, निद्रा से उठ बैठने वाला द्वापर है, उठकर खड़ा हो जाने वाला त्रेता है, लेकिन जो चल पडता है, वह कृतयुग, सतयुग, स्वर्ण —युग बन जाता है।
इसलिए चलते रहो, चलते रहो।
प्यारे ओशो! ऐतरेय ब्राह्मण के इस सुभाषित का
अभिप्राय समझाने का अनुग्रह करें।
नित्यानंद! यह सूत्र मेरे अत्यंत प्यारे सूत्रों में से एक है—जैसे मैंने ही कहां हो। मेरे प्राणों की झनकार है इसमें। सौ प्रतिशत मैं इससे राजी हूं। इस सूत्र के अतिरिक्त सतयुग की, द्वापर की, त्रेता की, कलियुग की जो भी परिभाषाएं शास्त्रों में की गई हैं,

गुरुवार, 29 अक्तूबर 2015

गुरू प्रताप साध की संगति--(प्रवचन--11)

गगन बजयो बेनु—(प्रवचन—ग्यारहवां)
दिनांक 31 मई, 1979;
ओशो कम्युन, पूना।
सूत्र:
ब्राह्मन कहिये ब्रह्म—रत, है ताका बड़ भाग।
नाहिंन पसु अज्ञानता, गर डारे तिन ताग।।

संत—चरन में लगि रहै, सो जन पावै भेव।
भीखा गुरु—परताप तें, काढेव कपट—जनेव।।

संत चरन में जाइकै, सीस चढ़ायो रेनु।
भीखा रेनु के लागते, गगन बजायो बेनु।।


बेनु बजायो मगन ह्लै, छूटी खलक की आस।
भीखा गुरु—परताप तें, लियो चरन में बास।।

मंगलवार, 27 अक्तूबर 2015

तंत्र--सूत्र--(भाग--3) --प्रवचन--47

मूलाधार से सहस्‍त्रार की ज्‍योति—यात्रा—(प्रवचन—सैतालीसवां)

सूत्र:
70—अपनी प्राण—शक्‍ति को मेरूदंड में ऊपर उठती,
एक केंद्र से दूसरे केंद्र की और गति करती हुई
प्रकाश—किरण समझों; ओरइस भांति तुममें
जीवंतता का उदय होता है।
      71—या बीच के रिक्‍त स्‍थानों में ये बिजली कौंधने
            जैसा है—ऐसा भाव करो।
      72—भाव करो कि ब्रह्मांड एक पारदर्शी शाश्‍वत उपस्‍थिति है।

नुष्‍य को तीन रूपों में सोचा जा सकता है—सामान्य, असामान्य और अधिसामान्य। पश्चिमी मनोविज्ञान असामान्य मनुष्य की, रुग्ण मनुष्य की सामान्य से, औसत से नीचे गिर गए मनुष्य की चिंता लेता है। और पूर्वीय मनोविज्ञान—तंत्र और योग—अधिसामान्य मनुष्य के दृष्टिकोण से मनुष्य पर विचार करता है, उस मनुष्य के दृष्टिकोण से मनुष्य पर विचार करता है

मेरा स्‍वर्णिम बचपन--(प्रवचन--39)

ऋषि पृथ्‍वी का नमक है(प्रवचनउन्‍नतालीसवां)

प्यारे ओशो!
लौकिकाना हि साभूनामर्थं वागनुवर्तते।
ऋषीणां पुनराद्यानां वाचमर्थोग्नुधावति।।
'लौकिक साधुओं की वाणी अर्थ का अनुसरण करती है :
लेकिन जो आदि ऋषि थे, उनकी वाणी का अनुसरण अर्थ करता था।
प्यारे ओशो। वसिष्ठ के इस सूत्र को समझाने की अनुकंपा करें।
क्या आदि ऋषि वास्तव में इतने ही श्रेष्ठ थे?

      योग प्रतीक्षा! साधु—और लौकिक—वह बात ही विरोधाभासी है। फिर साधु और असाधु में भेद क्या रहा?
असाधु वह—जो लौकिक; जिसकी दृष्टि पदार्थ के पार नहीं देख पाती है, पदार्थ में ही अटक जाती है; अंधा है जो। क्योंकि पदार्थ को ही देखने से बड़ा और क्या अंधापन होगा!

गुरू प्रताप साध की संगति--(प्रवचन--10)

मेरा पथ तो मुक्त गगन—(प्रवचन—दसवां)

दिनांक 30 मई, 1979;
ओशो कम्युन पूना।
प्रश्‍नसार:
1—भगवान! मेरे मन में बहुत द्वन्द्व है कि आपके पास आकर मुझे समाधान मिलेगा या नहीं! मैं बहुत उलझन में हूं। मेरा मन ऐसी चीजों से ग्रस्त है, जो स्वीकार्य नहीं हैं। जब मैं अपने में होती हूं, तो उनके साथ समायोजित हो जाती हूं, लेकिन आपके पास पहुंचकर मेरे उपद्रव बढ़ जाते हैं और मैं घबड़ा जाती हूं। मेरा व्यक्तित्व ज्यादा हठी और संदेहशील हो गया है; इस कारण अभी समर्पण कठिन है। इसके बावजूद मुझे आश्रम आने का जी बहुत होता है।
2—भगवान! झाबुआ के निकट पच्चीस सौ पच्चीस हवन—कुंड बनाकर यज्ञ हो रहा है। सुना है, यह पृथ्वी का सबसे बड़ा यज्ञ है, जिसकी तथाकथित पंडे—पुरोहित और राजनीतिज्ञ बड़ी तारीफ कर रहे हैं।
और दूसरी और आप जिस मंदिर और जीवनत्तीर्थ के निर्माण में लगे हैं, उसमें ये ही लोग बाधा डाला रहे हैं। लगता है, यह इन तथाकथित पंडे—पुरोहितों और राजनीतिज्ञों की सांठ—गांठ है। ऐसा क्यों?
3—भगवान! मैं कवि हूं, क्या सत्य को पाने लिए यह पर्याप्त नहीं है?

सोमवार, 26 अक्तूबर 2015

मेरा स्‍वर्णिम भारत--(प्रवचन--38)

स्‍वयं का बोध : मुक्‍ति(प्रवचनअड़तीसवां)

प्यारे ओशो!
आद्य शंकराचार्य की एक प्रश्नोत्तरी इस प्रकार है—
कस्यास्ति नाशे मनसो हि मोक्ष:
क्व सर्वथा नास्ति भयं विमुक्तौ।
शल्य परं किं निजमूर्खतेव
के के हयुपास्या गुरुदेववृद्धा:।।
'किसके नाश में मोक्ष है? मन के नाश में ही।
किसमें सर्वथा भय नहीं है? विमुक्त में।
सबसे बड़ा कांटा कौन है? अपनी मूर्खता ही।
कौन—कौन उपासना के योग्य है? गुरु, देवता और वृद्ध।
प्यारे ओशो! इन प्रश्नों पर आप क्या कहते हैं?

तंत्र--सूत्र--(भाग--3)--प्रवचन--46

समझ और समग्रता कुंजी है—(प्रवचन—छियालीसवां)

प्रश्‍नसार:
      1—मोक्ष की आकांक्षा कामना है या मनुष्‍य की मुलभूत अभीप्‍सा?
      2—हिंसा और क्रोध जैसे कृत्‍यों में समग्र रहकर कोई
कैसे रूपांतरित हो सकता है?
      3—क्‍या आप बुद्धपुरूषों की नींद की गुणवत्‍ता और
            स्‍वभाव पर कुछ कहेंगे?

पहला प्रश्न :

समझ और आपने कल कहा कि मोक्ष या समाधि की कामना भी तनाव और बाधा है। लेकिन क्या यह सही नहीं है कि यह कामना न होकर आकांक्षा है, मनुष्‍य की मूलभूत अभीप्‍सा है?

ह समझना जरूरी है कि कामना क्या है, चाह क्या है। धर्मों ने इस संबंध में लोगों में बहुत भ्रम पैदा कर रखा है। अगर तुम कोई सांसारिक चीज चाहते हो, तो वे इसे कामना कहते हैं, वासना कहते हैं। और अगर तुम कोई परलोक की चीज चाहते हो तो वे उसे भिन्न नाम से पुकारते हैं। यह बहुत बेतुका है, अनर्गल है।

गुरू प्रताप साध की संगति--(प्रवचन--09)

पाहुन आयो भाव सों—(प्रवचन—नौवां)
दिनांक 29 मई, 1979;
ओशो कम्युन, पूना।
सूत्र:
पाहुन आयो भाव सों, घर में नहीं अनाज।।
घर में नहीं अनाज, भजन बिनु खाली जानो।
सत्यनाम गयो भूल, झठ मन माया मानो।।
महाप्रतापी रामजी, ताको दियो बिसारि
अब कर छाती का हनो, गये सो बाजी हारि।।
भीखा गये हरिभजन बिनु तुरतहिं भयो अकाज।
पाहुन आयो भाव सों, धर में नहीं अनाज।।

वेद-पुरान पढ़े कहा, जो अच्छर समुझा नाहिं।।
अच्छर समुझा नाहिं, रहा जैसे का तैसा।।
परमारथ सों पीठ, स्वार्थ सनमुख होइ बैसा।।
सास्तर मत को ज्ञान, करम भ्रम में मन लावै
छुइगयो बिज्ञान, परमपद को पहुंचावै।।
भीखा देखे आपु को, ब्रह्म रूप हिये माहिं
वेद-पुरान पढ़े कहा, जो अच्छर समुझा नाहिं।।

रविवार, 25 अक्तूबर 2015

मेरा स्‍वर्णिम भारत--(प्रवचन--37)

धर्म : एक मात्र कीमिया(प्रवचनसैतीसवां)

प्यारे ओशो!
निरुक्त में यह श्लोक आता है :
मनुष्या वा ऋषिसूलामत्सु
देवानब्रुवन्क्रो न ऋषिर्भविष्यतीति।
तेभ्य एत तर्कमृषि प्रायच्छर।।
इस लोक से जब ऋषिजन जाने लगे, जब उनकी परम्परा समाप्त होने लगी
तब मनुष्यों ने देवताओं से कहां कि अब हमारे लिए कौन ऋषि होगा?
इस अवस्था में देवताओं ने तर्क को ही ऋषि—रूप में उनको दिया।
अर्थात देवताओं ने मनुष्यों से कहां कि आगे को
तर्क को ही ऋषि—स्थानीय समझो।
प्यारे ओशो! हमें निरुक्त के इस वचन का
अभिप्राय समझाने की कृपा करें।

शनिवार, 24 अक्तूबर 2015

मेरा स्‍वर्णिम भारत--(प्रवचन--36)

दो पक्षी: कर्ता और साक्षी(प्रवचनछत्‍तीसवां)

  प्यारे ओशो।
      उपनिषाद का प्रसिद्ध रूपक है, जिसका उल्‍लेख आपके
      वचनों में भी आया है। दो पक्षी साथ रहने वाले है, और दोनों मित्र है।
      वे एक ही वक्ष को आलिंगन किए हुए है। उनमें से एक स्‍वादवाले फल को
      खाता है और दूसरा फल न खाता हुआ केवल साक्षीरूप से रहता है।
      उस वृक्ष पर एक पक्षी (जीव) आसक्‍त होकर, असमर्थता से
      धोखा खाता हुआ शोक करता है, किंतु जब अपने दूसरे साथी (ईश)
      और उनकी महिमा को देखता है, तब शोक के पार हो जाता है।
      कृपा पूर्वक इस रूपक के महत्‍व को बतांए।

स छोटे—से रूपक में जीवन की सारी व्यथा, जीवन का सारा संताप और उस वरदान की भी पूरी संभावना छिपी है, जो समाधिस्थ व्यक्ति को उपलब्ध होता है।

गुरू प्रताप साध कि संगति--(प्रवचन--08)

तिमिर में सूर्य का मुखड़ा—(प्रवचन—आठवां)
दिनांक 28 मई, 1979;
ओशो आश्रम, पूना।
प्रश्‍नसार:
1—भगवान! सुबह कब होगी?
2—भगवान! आपको याद होगा, आपने द्वारका शिविर में कहा था: "जीवन बार—बार नहीं मिलता। मैं तुझे मोक्ष दूंगा। जैसा कहूं वैसा करना।'
प्रभु! मोक्ष तो दूर, अब तक बंबई और पूना के चक्कर काट रही हूं। और आज आपने स्वर्ग और नर्क की बात की, वह भी मेरे से अनजान है। पर यह जो अहर्निश सुमरन हो रहा है, इस पर तो मेरा वश नहीं है।
अपन दोनों पूना में ही भले हैं। जीवन मजाक और हंसी से ज्यादा कहां है!
3—भगवान! इस देश के राजनेता देश को कहां लिए जा रहे हैं? समाजवाद का क्या हुआ?

तंत्र--सूत्र--(भाग--3) प्रवचन--45

न बंधन है न मोक्ष—(प्रवचन—पैतालीसवां)

सूत्र:
68—जैसे मुर्गी अपने बच्‍चों का पालन—पोषण करती है,
वैसे ही यथार्थ में विशेष ज्ञान और विशेष कृत्‍य का
पालन—पोषण करो।
69—यथार्थत: बंधन और मोक्ष सापेक्ष है; ये केवल विश्‍व से
      भयभीत लोगों के लिए है। यह विश्‍व मन का प्रतिबिंब है।
      जैसे तुम पानी में एक सूर्य के अनेक सूर्य देखते हो, वैसे
ही बंधन और मोक्ष को देखो।

नोने किसी से पूछा था : 'समस्या क्या है? वे जड़ें क्या हैं जिन से मनुष्य का समाधान हो सके और वह यह जानने का प्रयत्न करे कि मैं कौन हूं?'
बिना किसी प्रयत्न के आदमी स्वयं को क्यों नहीं जान सकता? कोई समस्या ही क्यों हो? तुम हो; तुम जानते हो कि मैं हूं। फिर तुम क्यों नहीं जान सकते कि मैं कौन हूं?

शुक्रवार, 23 अक्तूबर 2015

गुरू प्रताप साध की संगति--(प्रवचन--07)

राम भजै सो धन्य—(प्रवचन—सातवां)

दिनांक 27 मई, 1979;  
ओशो कम्यून इटंरनेशल, पूना
सूत्र:
रामरूप को जो लख, सो जन परम प्रबीन।।
सो जन परम प्रबीन, लोक अरु बेद बखानै।।
सतसंगति में भाव—भक्ति परमानंद जानै।।
सकल विषय को त्याग बहुरि परबेसपावै।।
केवल आपै आपु आपु में आपु छिपावै।।
भीखा सब तें छोटे होइ, रहै चरन—लवलीन।।
रामरूप को जो लखै, सो जन परम प्रबीन।।

मेरा स्‍वर्णिम भारत--(प्रवचन--35)

मनुष्‍य बीज है भगवत्‍ता का(प्रवचनपैतीसवां)

प्यारे ओशो।
शतपथ ब्राह्मण में एक प्रश्न है:
      को वेद मनुष्‍यस्‍य?
 (मनुष्य को कौन जानता है?)
प्यारे ओशो! क्या मनुष्य इतना जटिल और रहस्यपूर्ण है कि उसे कोई नहीं जान सकता है?
पुरुषोत्तम माहंती! मनुष्य जटिल नहीं है, रहस्यपूर्ण जरूर है। जटिल होता तो जानना कठिन न होता। कितना ही जटिल हो, जटिलता सुलझायी जा सकती है। जटिलता एक पहेली है, जो बुद्धि की सीमा के पार नहीं, बुद्धि की सीमा के भीतर है। जो जटिल था उसे मनुष्य ने सुलझा लिया है, या नहीं सुलझाया है तो सुलझा लेगा। जो कल अज्ञात था, आज ज्ञात है। जो आज अज्ञात है, कल ज्ञात हो जाएगा।