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बुधवार, 27 जुलाई 2016

फिर अमरित की बूंद पड़ी--(प्रवचन--05)

जीवन बहती गंगा है—(प्रवचन—पांचवां)
दिनांक 6 अगस्त, सन् 1986;
प्रात: सुमिला, जुहू, बंबई।

मेरे प्रणाम  को आप स्वीकार करें। मेरा प्रश्न ज्योतिष के संबंध में है। ज्योतिष के संबंध में आपके विचार क्या है? क्या इसमें कोई सत्यांश है? क्या आप इसमें विश्वास करते है? क्या यह सच है कि एक ज्योतिषी ने आपके पिताजी से यह भविष्यवाणी की थी कि आप सात साल से अधिक जीवित नहीं रहेंगे और यदि जीवित रहे तो आप बुद्ध हो जाएंगे?
मैं जीवित रहा, यह पर्याप्त सबूत है कि ज्योतिष में कोई सत्यांश नहीं है। ज्योतिष मनुष्य की कमजोरी है। मनुष्य की कमजोरी है, क्योंकि वह भविष्य के झांक नहीं सकता और वह देखना चाहता है। वह पथभ्रष्ट होने से सदा भयभीत रहता है। वह आश्वस्त होना चाहता है कि वह ठीक रास्ते पर है। और भविष्य बिलकुल ही अज्ञात है,
इसके बारे में कुछ अनुमान नहीं लगाया जा सकता। लेकिन ऐसे लोग हैं जो मनुष्य की कमजोरियां का फायदा उठाने को सदा तत्पर हैं।

पद घूंघरू बांध--(प्रवचन--18)

जीवन का रहस्य—मृत्यु में—(प्रवचन—अठारहवां)

प्रश्न—सार:
1—मैं असहाय हूं, मैं बेबस हूं! मैं क्या करूं?
2—मंसूर और सरमद के अफसाने पुराने हो गए।
3—ऐ रजनीश! मेरे लिए किस्सा नया तजवीज कर। क्या मेरी प्रार्थना सुनी जाएगी?
4—सुना है कि जिंदगी चार दिनों की होती है और मिलन पांचवें दिन होता है। तो क्या करूं?
5—परमात्मा कहां है और मैं उसे कैसे खोजूं?

मंगलवार, 26 जुलाई 2016

फिर अमरित की बूंद पड़ी--(प्रवचन--04)

मेरी दृष्टि सृजनात्मक है—(प्रवचन—चौथा)
 
दिनांक 4 अगस्त, सन् 1986;
प्रात: सुमिला, जुहू, बंबई।

मोरारजी सरकार से लेकर राजीव सरकार तक के आप केवल आलोचक ही बने रहे है। किंतु इस देश की समस्याओं को सुलझाने के लिए आपके पास कोई विशेष दृष्टिकोण या उत्तर है?
स देश की समस्याएं इस देश से बड़ी है। और आलोचना नकारात्मक नहीं है। वह समस्याओं को सुलझाने का विधायक रूप है। जैसे कि कोई सर्जन किसी के कैंसर का आपरेशन करे, तो क्या तुम उस आपरेशन को नकारात्मक कहोगे? दिखता तो नकारात्मक है, लेकिन वस्तुतः विधायक है। और इसके पहले कि कोई पुरानी इमारत गिरानी हो, नई इमारत खड़ी करनी हो, तो लोगों को सजग करना जरूरी है कि अब पुरानी इमारत के नीचे रहना खतरनाक है। वह जीवन को नष्ट कर सकती है।
मैंने अपने जीवन में किसी को कोई आलोचना नहीं की। लेकिन मजबूरी नहीं हूं। मेरी दृष्टि सृजनात्मक है। लेकिन बनाने के पहले मिटाना पड़ेगा ही। और हजारों वर्षों की सड़ी गली परंपराएं, अंध विश्वास, जो हमारी छाती पर सवार हैं और इस देश को आगे नहीं बढ़ने देते, जब तक हम उन्हें अलग नहीं कर देते तब तक देश में कोई विधायक, कोई सृजनात्मक, कोई निर्माण नहीं हो सकता।

सोमवार, 25 जुलाई 2016

पद घूंघरू बांध--(प्रवचन--16)

संन्यास है—दृष्टि का उपचार—(प्रवचन—सोलहवां)

प्रश्न—सार:

1—आप कहते हैं—संन्यासी को संसार छोड़ना आवश्यक नहीं। क्यों?
2—आप अपने संन्यासियों को संसार से अलग नहीं होने की सलाह देते हैं। फिर आपके प्रवचनों में संन्यासियों और संसारियों के बीच लक्ष्मण—रेखा क्यों बनती है?
3—मैं पूना के लिए यह निश्चय करके चला था कि अब की बार संन्यास लेकर लौटूंगा। किंतु यहां आपके सान्निध्य में होकर संन्यास का भाव ही विलीन हो गया।
4—वर्ष भर से सक्रिय ध्यान करता हूं। पांच—छह बार ध्यान की क्षणिक अनुभूतियां भी हुईं। एक बार तो आंखें आप ही आप ऊपर चढ़ गईं और आज्ञाचक्र एकदम से प्रकाशित हो गया। किंतु हर ध्यान के बाद यह भाव बना रहा: आखिर इससे क्या हुआ? अनुग्रह का भाव तो उठता नहीं। भगवान, बताएं कि मैं क्या करूं?

पद घूंघरू बांध--(प्रवचन--17)

भक्ति का प्राण: प्रार्थना—(प्रवचन—सत्रहवां)
 सूत्र :

झुक आई बदरिया सावन की, सावन की मनभावन की।
सावन में उमग्यो मेरा मनवा, भनक सुनी हरि आवन की।
उमड़—घुमड़ चहुं दिस से आए, दामण दमक झर लावन की।
नन्हीं—नन्हीं बुंदिया मेहा बरसे, सीतल पवन सुहावन की।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर, आनंद मंगल गावन की।

राणाजी, मैं सांवरे रंग राची।
सज सिंगार पद बांध घुंघरू, लोकलाज तजि नाची।
गई कुमति लहि साधु संगति, भक्ति रूप भई सांची।
गाय—गाय हरि के गुण निसदिन, काल—ब्याल ते बांची।
उन बिन सब जग खारो लागत, और बात सब कांची।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर, भक्ति रसीली जांची।

फिर अमरित की बूंद पड़ी--(प्रवचन--03)

एक नया ध्रुवतारा—(प्रवचन—तीसरा)
दिनांक 4 अगस्त, सन् 1986;
सुमिला, जुहू, बंबई।

मैं अभी—अभी आपके प्रश्नों को देख रहा था। यह जानकर दुखा होता है कि भारत की प्रतिभा ऐसी कीचड़ में गिरी है कि प्रश्न भी नहीं पूछ सकती। और जो प्रश्न पूछती भी है, वे सड़े—गले हैं, उनसे दुर्गंध उठती है। यदि तुम चाहते हो तो मैं जवाब दूंगा, लेकिन छाती पर हाथ रख लो, चोट पड़े तो परेशान मत होना। और जो मैं कहूं उसमें से एक भी शब्द काटा न जाए और जो मैं कहूं उसमें एक भी शब्द जोड़ा न जाए। ताकि तुम्हारी तस्वीर न केवल भारत के सामने बल्कि दुनिया के सामने स्पष्ट हो सके। प्रश्न भी पूछना मुश्किल है तो उत्तर तो तुम क्या समझ पाओगे। लेकिन मैं कोशिश करूंगा। शुरू करो।


दुनिया का सबसे अच्छा राष्ट्र कौन—सा है? और सबसे खराब राष्ट्र आप किसे मानते हैं?

भारत दोनों है, क्योंकि यहां मैं भी हूं और तुम भी हो। और भारत ने इस संसार में चेतना की ऊंचाइयां छुई हैं और अब मैं तुम्हें नालियों में पड़ा हुआ भी देख रहा हूं। और नालियों के तुम इतने आदी हो गए हो, तुमने उन्हें मंदिर बना लिया है। तुम उनसे निकलना भी नहीं चाहते!

रविवार, 24 जुलाई 2016

फिर अमरित की बूंद पड़ी--(प्रवचन--02)

मैं जीवन सिखाता हूं—(प्रवचन—दूसरा)

      दिनांक 1 अगस्त 1986;
      प्रात: सुमिला, जुहू बंबई।
मैंने आज के लिए भेजे गए प्रश्न देखे; और उन्हें देखकर मुझे बड़ी शर्म आई। शर्म इस बात की कि भारत की प्रतिभा इतने नीचे गिर गई है कि यह कोई अर्थपूर्ण प्रश्न भी नहीं पूछ सकती। फिर अर्थपूर्ण उत्तरों की खोज करने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता। जो भी प्रश्न मुझे दिखाए गए वे सब सड़े गले हैं। पीली पत्रकारिता, जो तीसरे दर्जे की मनुष्यता की जरूरत पूरी करती है। उसमें मुझे कोई रस नहीं है।
यह अत्यंत प्रतिभा का देश है। मनुष्यता के इतिहास में यह देश उत्तुंग शिखर पर पहुंचा है—चेतना के हिमालय के शिखर। और अब लगता है कि हम इतने नीचे गिर गए हैं कि जब तक कोई प्रश्न किसी अमानवीय, कुरूप तत्व से संबंधित नहीं होता, तब तक किसी का उत्तर में रस नहीं होता।
मैं कोई राजनैतिक नहीं हूं। इसलिए जब कोई मुझसे प्रश्न पूछने की हिम्मत करे, तो ख्याल रखे कि मैं यहां कोई तुम्हें सांत्वना देने के लिए, या तुम्हारे मनचाहे उत्तर देने के लिए नहीं हूं।

पद घुंघरू बांध--(प्रवचन--15)

पद घुंघरू बांध—(प्रवचन—पंद्रहवां)  
हेरी! मैं तो दरद दिवानी
सूत्र:

हेरी! मैं तो दरद दिवानी, मेरो दरद न जाणे कोइ।
घायल की गति घायल जाणे, की जिन लाई होइ।
जौहरि की गति जौहरि जाणे, की जिन जौहर होइ।
सूली ऊपर सेज हमारी, सोवण किस विधि होइ।
गगन मंडल पे सेज पिया की, किस विधि मिलना होइ।
दरद की मारी बन बन डोलूं, बैद मिल्या नहिं कोइ।
मीरा के प्रभु पीर मिटेगी, जब बैद सांवलिया होइ।

बंसीवारा आज्यो म्हारो देस, थांरी सांवरी सूरत बाला भेस।
आऊं—आऊं कर गया सांवरा, कर गया कौल अनेक।
गिणता—गिणता घस गई जी, म्हारी आंगलिया की रेख।
मैं बैरागण आदि की जी, थारि म्हारि कदको सनेस।
बिन पाणी बिन सावण सांवरा, हो गई धोए सफेद।
जोगण होकर जंगल हेरूं, तेरो नाम न पायो भेस।

शनिवार, 23 जुलाई 2016

फिर अमरित की बूंद पड़ी--(प्रवचन--01)

मैं स्वतंत्र आदमी हूं—(पहला—प्रवचन)

31 जुलाई 1986 प्रातः सुमिला, जुहू बंबई

ड़े दुख भरे हृदय से मुझे आपको बताना है कि आज हमारे पास जो आदमी है, वह इस योग्य नहीं है कि उसके लिए लड़ा जाए।

टूटे हुए सपनों, ध्वस्त कल्पनाओं और बिखरी हुई आशाओं के साथ मैं वापस लौटा हूं। जो मैंने देखा वह एक वास्तविकता है, और अपने पूरे जीवन भर जो कुछ मैं मनुष्य के विषय में सोचता रहा, वह केवल उसका मुखौटा था। मैं आपको थोड़े से उदाहरण दूंगा, क्योंकि यदि मैं अपनी पूरी विश्व यात्रा का वर्णन सुनाने लगूं तो इसमें करीब-करीब एक माह लग जाएगा। इसलिए कुछ महत्वपूर्ण बातें ही आपसे कहूंगा, जो कुछ संकेत दे सकें।

फिर अमरित की बूंद पड़ी—ओशो

फिर अमृत की बूंद पड़ी—(राष्ट्री सामाजिक)-ओशो


(ओशो द्वारा मनाली ओर मुम्बई में दिये गये आठ अमृत प्रवचनो का संग्रह। जिसमें उन्होंने अमरीकी सरकार द्वारा दिये गये अत्याचारों की चर्चा है)

दुनिया में आज घोर निराशा की स्थिति है। एक ओर खाड़ी में बमों की बौछार हो
रही है जिसे कोई नहीं रोक पा रहा है। दूसरी ओर पूरे विश्व में आतंकवाद इतना आम है
कि रोजमर्रा की घटना हो गया है। ऐसे माहौल में अमृत की चर्चा अमृत की बूंदों की वर्षा
इस दुनिया की बात नहीं लगती है। नहीं लगता कि यह दुनिया रूपांतरित हो सकती है या
इसे कोई बदल कर अमृत-पथ की ओर ले जा सकता है।

एक मित्र ने ओशो से पूछा. विवेकानंद ने कहा था कि अगर उनके पास अपने दो
सौ व्यक्ति हों तो वे सारे जगत को रूपांतरित कर देंगे। आपने इस विषय में कहा था कि
विवेकानंद की मृत्यु निराशा में हुई।

शुक्रवार, 22 जुलाई 2016

पद घुंघरू बांध--(प्रवचन--14)

पद घुंघरू बाँध—(प्रवचन—चौदहवां)
समन्वय नहीं—साधना करो
प्रश्न—सार:
1—आप कहते हैं कि मनुष्य अपने लिए पूरी तरह जिम्मेवार है। और दूसरी ओर आप कहते हैं कि "समस्त' सब करता है। इन दो वक्तव्यों के बीच समन्वय कैसे हो?

2—संसार में एक आप ही हैं जिससे भय नहीं लगता था। पर इधर कुछ दिनों से आपसे भय लगने लगा है। यह क्या स्थिति है, प्रभु?

3—आपने कहा कि गीता के कृष्ण से मीरा का कोई संबंध नहीं। लेकिन मीरा तो कहती है मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई। तो यह गिरधर गोपाल कौन है?

4—मैं बहुत दुखी हूं, मुझे मार्ग दिखाएं।

5—मैं आपका संदेश घर—घर पहुंचाना चाहता हूं, लेकिन कोई मेरी सुनता ही नहीं है। मैं क्या करू? तड़फता हूं और चुप हूं।

गुरुवार, 21 जुलाई 2016

पद घुंघरू बांध--(प्रवचन--13)

पद घुंघरू बाँध—(प्रवचन—तेरहवां)
 मीरा से पुकारना सीखो
सूत्र:

सखी, मेरी नींद नसानी हो।
पिय को पंथ निहारत सिगरी, रैन विहानी हो।
सब सखियन मिलि सीख दई, मन एक न मानी हो।
बिन देख्या कल नांहि पड़त, जिय ऐसी ठानी हो।
अंगिअंगि व्याकुल भई, मुख पिय—पिय बानी हो।
अंतर वेदन विरह की, वह पीड़ न जानी हो।
ज्यूं चातक घन कूं रटै, मछरी जिमि पानी हो।
मीरा व्याकुल विरहिणी, सुध—बुध बिसरानी हो।

डारि गयो मनमोहन फांसी।
अम्बुआ की डाली कोयल इक बोलै, मेरो मरण अरू जग केरी हांसी।
विरह की मारी मैं बन—बन डोलूं, प्राण तजूं करवत ल्यूं कासी।
मीरा के प्रभु हरि अविनासी, तुम मेरे ठाकुर मैं तेरी दासी।

बुधवार, 20 जुलाई 2016

पद घुंघरू बांध--(प्रवचन--12)

पद घुंघरू बाँध—(प्रवचन—बारहवां)  
मनुष्य: अनखिला परमात्मा

प्रश्न—सार:

1—आपने कहा कि संसार से विमुख होते ही परमात्मा से सन्मुखता हो जाती है।
आखिर संसार कहां खत्म होता है और कहां परमात्मा शुरू होता है? इस रहस्य, पहेली पर कुछ कहने की अनुकंपा करें।
2—आपने कहा—गदगद हो जाओ, तल्लीन हो जाओ, रसविभोर हो जाओ और जीवन को उत्सव ही उत्सव बना लो। लेकिन यह सब हो कैसे? मैं बड़ा निष्क्रिय सा अनुभव करता हूं। और अपने आप होश में कभी हुआ नहीं। बड़ी उलझन में हूं। कृपया समझाएं।
3—मनुष्य के जीवन में इतना द्वंद्व क्यों है?
4—सहस्रार की ऊंचाई पर खड़ी मीरा कहती है—"मेरो मन बड़ो हरामी'—तो हम मूलाधार की नीचाई पर खड़े लोगों के मन के लिए क्या कहा जाएगा?
5—मनुष्य की पात्रता कितनी है?

सोमवार, 18 जुलाई 2016

पद घुंघरू बांध--(प्रवचन--11)

पद घुंघरू बाँध—(प्रवचन—ग्यारहवां)  
भक्ति: एक विराट प्यास
सूत्र:

म्हारो जनम—मरन को साथी, थानें नहिं बिसरूं दिन—राती।
तुम देख्यां बिन कल न पड़त है, जानत मेरी छाती।
ऊंची चढ़—चढ़ पंथ निहारूं, रोवै अखियां राती।
यो संसार सकल जग झूंठो, झूंठा कुल रा न्याती।
दोउ कर जोड़यां अरज करत हूं सुण लीजो मेरी बाती।
यो मन मेरो बड़ो हरामी, ज्यूं मदमातो हाथी।
सतगुरु हस्त धरयो सिर ऊपर, अंकुस दे समझाती।
पल—पल तेरा रूप निहारूं, हरि चरणां चित राती।

मोहे लागी लगन गुरु चरनन की।
चरण बिना कछुवै नहिं भावै, जग माया सब सपनन की।
भवसागर सब सूखि गयो है, फिकर नहीं मोहे तरनन की।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर, आस वही गुरु सरनन की।

रविवार, 17 जुलाई 2016

पद घुंघरू बांध--(प्रवचन--10)

पद घुंघरू बांध—(प्रवचन—दसवां) 
फूल खिलता है—अपनी निजता से
प्रश्न—सार
1—परंपरा में भी फूल खिलते हैं और परंपरा के कारण भी फूल खिलते हैं। व्यवस्था या परंपरा तो मिटेगी नहीं; इसलिए उसमें कभी—कभी जान डालनी पड़ती है।...?
2—मेरा मन न धन में लगता है न यश में लगता है, लेकिन मैं यह भी नहीं जानता हूं कि मेरा मन कहां लगेगा?...
3—मैं जो पा रहा हूं, उसे अपने प्रियजनों को भी देना चाहता हूं, लेकिन कोई लेने को तैयार नहीं।...?
4—आप जैसे महान दाता के होते हुए भी मेरा भिक्षापात्र क्यों नहीं भरता?...

शनिवार, 16 जुलाई 2016

पद घुंघरू बांध--(प्रवचन--09)

पद घुंघरू बाँध—(प्रवचन—नौवां)

राम नाम रस पीजै मनुआं
सूत्र:

कोई कहियौ रे प्रभु आवन की, आवन की, मनभावन की।
आप न आवै लिख नहिं भेजै, बांण पड़ी ललचावन की।
ए दोइ नैन कह्यौ नहिं मानै, नदिया बहै जैसे सावन की।
कहा करूं कछु बस नहिं मेरो, पांख नहिं उड़ जावन की।
मीरा कहै प्रभु कब रे मिलोगे, चेरी भइ हूं तेरे दामन की।

राम नाम रस पीजै मनुआं, राम नाम रस पीजै।
तज कुसंग सतसंग बैठि नित, हरि चरचा सुण लीजै।
काम क्रोध मद मोह लोभ कूं, चित्त से बहाय दीजै।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर, ताहि के रंग में भीजै।

शुक्रवार, 15 जुलाई 2016

पद घुंघरू बांध--(प्रवचन--08)

पद घुंघरू बाँध—(प्रवचन—आठवां)

दमन नहीं—ऊर्ध्वगमन

प्रश्न—सार:
1—आमतौर से समझा जाता है कि धार्मिक बनने के लिए इंद्रियों को वश में रखना अनिवार्य है। आप कहते हैं कि इंद्रिय—दमन भक्ति का लक्षण नहीं।...?
2—कुछ दिनों से यहां प्रेम की ध्वनि सुन रहे थे, लेकिन आश्रम के वातावरण में वह कहीं भी सुनाई न पड़ती थी। वीणा के प्रत्युत्तर के बाद बाहर आनंद और प्रेम का अनोखा वातावरण छा गया। क्या कोई अपूर्व घटना घट गई या ये हमारी आंखों के गुण—दोष थे?
3—मैं आपके पास आया तो मेरी आंखें खुलीं, लेकिन तब से लोग मुझे अंधा कहने लगे।...?
4—"ललिता' से "मीरा' तक की यात्रा में साढ़े चार हजार साल का समय लग गया। भगवान, क्या प्रेम का मार्ग इतना ज्यादा कठिन और लंबा है?

गुरुवार, 14 जुलाई 2016

पद घुंघरू बांध--(प्रवचन--07)

पद घुंघरू बाँध—(प्रवचन—सातवां)
मैंने राम रतन धन पायो
सूत्र:

मैंने राम रतन धन पायो।
वस्तु अमोलक दी मेरे सतगुरु, करि करिपा अपनायो।
जनम—जनम की पूंजी पाई, जग में समय खोवायो।
खरचै नहिं कोई चोर न लेवै, दिन दिन बधत सवायो।
सत की नाव खेवटिया सतगुरु, भवसागर तरि आयो।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर, हरखि—हरखि जस गायो।।


नहिं भावे थांरो देसलड़ो रंगरूड़ो।
थारां देसां में राणा साध नहीं छै, लोग बसैं सब कूड़ो।
गहना—गांठी राणा हम सब त्यागा, त्यागो कर रो चूड़ौ।
काजल—टीकी हम सब त्यागा, त्याग्यो छै बांधन जूड़ो।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर, वर पायो छै पूरो।।

मेरा मन रामहि राम रटै रे।
राम नाम जप लीजै प्रानी, कोटिक पाप कटै रे।
जनम—जनम के खत जु पुराने, नामहि लेत फटै रे।
कनक कटोरे इम्रत भरियौ, पीवत कौन नटै रे।
मीरा कहै प्रभु हरि अविनासी, तन मन ताहि पटै रे।।

मंगलवार, 12 जुलाई 2016

पद घूंघरू बांध--(प्रवचन--06)

पद घुंघरू बाँध—(प्रवचन—छठवां)
श्रद्धा है द्वार प्रभु का

प्रश्न—सार:  

1—श्रद्धा क्या है?
2—जाने क्या पिलाया तूने, बड़ा मजा आया!
3—प्रवचन में आपका प्यार बरस रहा है; उससे भी कहीं अधिक मार पड़ रही है। अब मार की तिलमिलाहट सहन नहीं होती।
4—स्मृति और स्वप्न से मैं आपके पास कभी—कभी पहुंच जाती हूं। लेकिन इस जन्म के पति की मेहरबानी से मैं अभी तक आप तक नहीं पहुंच पाई। आपकी प्रेम—दीवानी होने के लिए मैं क्या करूं?
5—यह कैसा विद्यापीठ है आपका, जहां सिखाया जाता है कि दो और दो चार होते हैं; और चार नहीं होते, पांच भी हो सकते हैं!

सोमवार, 11 जुलाई 2016

पद घुंघरू बांध--(प्रवचन--05)


      पद घुंघरू बांध(प्रवचन—पांचवां)  
पद घुंघरू बांध मीरा नाची रे
सूत्र:

माई री मैं तो लियो गोबिन्दो मोल।
कोई कहै छाने कोई कहै चौड़े लियो री वजंता ढोल।
कोई कहै मुंहगो कोई कहै सुंहगो लियो री तराजू तोल।
कोई कहै कारो कोई कहै गोरो, लियो री अमोलिक मोल।
याही कूं सब लोग जाणत हैं, लियो री आंखी खोल।
मीरा को प्रभु दरसण दीज्यो, पूरब जनम के कौल।

मैं गोविन्द गुण गाणा।
राजा रूठै नगरी राखै, हरि रूठया कहं जाणा।
राणा भेजा जहर पियाला, इमरत करि पी जाणा।
डिबिया में भेज्या ज भुजंगम, सालिगराम करि जाणा।
मीरा तो अब प्रेम दीवानी, सांवलिया वर पाणा।

पग घुंघरू बांध मीरा नाची रे।
मैं तो मेरे नारायण की आपहि हो गई दासी रे।
लोग कहैं मीरा भई बावरी, सास कहैं कुलनासी रे।
विष का प्याला राणाजी भेज्यां, पीवत मीरा हांसी रे।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर, सहज मिले अविनासी रे।

अमी झरत बि‍‍गसत कंवल--(प्रवचन--14)

अंतर जगत की फाग(प्रवचन—चौदहवां)
दिनांक 25 मार्च, 1979;
श्री रजनीश आश्रम, पूना
प्रश्‍नसार:
1—आधुनिक मनुष्य की सब से बड़ी कठिनाई क्या है?
2—साधु—संतों को देखकर ही मुझे चिढ़ होती है और क्रोध आता है। मैं तो उन में सिवाय पाखंड के और कुछ भी नहीं देखता हूं, पर आपने न मालूम क्या कर दिया के श्रद्धा उमड़ती है! आपका प्रभाव का रहस्य क्या है?
3भगवान! बुरे कामों के प्रति जागरण से बुरे काम छूट जाते हैं तो फिर अच्छे काम जैसे प्रेम, भक्ति के प्रति जागरण हो तो क्या होता है, कृपया इसे स्पष्ट करें।
4भगवान! प्रभु—मिलन में वस्तुतः क्या होता है? पूछते डरता हूं। पर जिज्ञासा बिना पूछे मानती भी नहीं। भूल हो तो क्षमा करें।